वंदना टेटे
जोहार। आदिवासी Books and Authors के इस अंक में हम बात करेंगे कुलदीप सिंह बम्पाल की किताब ‘‘चाय बागान की कहानी, आदिवासियों की जुबानी’ पर। यह किताब जनवरी 2025 में केलुंग बुक्स से छपी है। 152 पृष्ठों वाली इस किताब की कीमत 250 रुपया है।
संगी और साथियो, हम सबके जीवन में चाय का एक विशेष स्थान है। चाहे सुबह की शुरुआत करनी हो, काम के बीच थोड़ी राहत लेनी हो, या किसी मित्र के साथ बैठकर बातचीत करनी हो – चाय हमारे जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुकी है। यह केवल एक पेय नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक प्रतीक भी है जो सामाजिक संबंधों को गाढ़ा करता है और हमारे रोज़मर्रा के अनुभवों को ताज़गी देता है। किंतु बहुत कम लोग इस पर ध्यान देते हैं कि यह चाय, जो इतनी सहजता से हमारी मेज़ तक पहुँच जाती है, दरअसल कितने कठिन परिश्रम, कितने जीवन संघर्ष और कितनी सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं के बीच से गुजरकर हम तक आती है। हम इसके स्वाद का आनंद लेते हैं, लेकिन इसके पीछे छिपे हुए श्रम और उन समुदायों के जीवन को प्रायः अनदेखा कर देते हैं, जो दिन-रात चाय बागानों में पसीना बहाते हैं।
इसी अनदेखे पक्ष को सामने लाने का प्रयास किया है कुलदीप सिंह बम्पाल ने अपनी पुस्तक ‘चाय बागान की कहानी, आदिवासियों की जुबानी’ में। यह अध्ययन केवल चाय उत्पादन की प्रक्रिया पर नहीं, बल्कि उन आदिवासी समुदायों पर केंद्रित है जो पीढ़ियों से चाय बागानों में काम करते आ रहे हैं। पुस्तक हमें उनके जीवन के बेहद करीब ले जाती है, उनके संघर्ष, उनकी आकांक्षाओं और उनकी अनसुनी कहानियों से परिचित कराती है।
चाय उद्योग भारत की अर्थव्यवस्था और संस्कृति में एक विशेष स्थान रखता है। असम, दार्जिलिंग, दून घाटी और दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में चाय के विस्तृत बागान फैले हुए हैं। इन बागानों में काम करने वाले श्रमिकों का मुख्य हिस्सा आदिवासी समुदायों से आता है, जिन्हें औपनिवेशिक शासन के दौरान विभिन्न हिस्सों से जबरन या प्रलोभन देकर यहाँ लाया गया था। इनमें संथाल, उरांव, मुण्डा, खड़िया, गोंड और अन्य कई आदिवासी समुदाय शामिल हैं। समय के साथ ये समुदाय चाय बागानों की ज़िंदगी में समा गए, लेकिन उनकी अपनी संस्कृति, भाषाएँ और परंपराएँ धीरे-धीरे अंतहीन शोषण की खाई में धकेली जाती रहीं।
बम्पाल का अध्ययन इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सामने लाता है। वे बताते हैं कि चाय बागानों के श्रमिक केवल आर्थिक दोहन के शिकार ही नहीं हुए, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी उन्हें अनेक प्रकार की वंचनाओं का सामना करना पड़ा। कम वेतन, कठिन श्रम, अस्वास्थ्यकर परिस्थितियाँ और शिक्षा-सुविधाओं का अभाव – ये समस्याएँ आज भी चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों के जीवन का हिस्सा हैं।
पुस्तक का महत्व इस बात में है कि यह केवल आँकड़ों या औपचारिक शोध का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि उन आदिवासियों की आवाज़ को सामने लाती है जो अक्सर ‘विकास’ और ‘उद्योग’ की मुख्यधारा की चर्चाओं में गुम हो जाते हैं। लेखक ने प्रत्यक्ष संवाद और अनुभव-संग्रह के माध्यम से इन कहानियों को संजोया है। इस कारण पुस्तक में एक जीवंतता है जो पाठक को सीधे चाय बागान के श्रमिकों की दुनिया में ले जाती है।
आदिवासियों के जीवन संघर्ष की यह झलक हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी सुविधाओं और उपभोग की वस्तुओं के पीछे कितना श्रम छिपा हुआ है। हम चाय के प्याले में केवल स्वाद और सुगंध का अनुभव करते हैं, लेकिन उसी में कहीं न कहीं उन आदिवासी महिलाओं और पुरुषों की मेहनत की गंध भी समाई हुई है, जो सुबह से शाम तक झाड़ियों के बीच झुक-झुककर पत्तियाँ तोड़ते हैं। यह मेहनत केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक भी है, क्योंकि पीढ़ियों से उपेक्षित होने का बोझ भी उनके कंधों पर है।
बम्पाल ने इस अध्ययन को केवल शोषण की कथा बनाकर नहीं छोड़ा, बल्कि आदिवासी जीवन की दृढ़ता और उनकी सांस्कृतिक जीवटता को भी उजागर किया है। यह समुदाय तमाम कठिनाइयों के बावजूद अपनी परंपराओं, गीतों, नृत्यों और सामाजिक एकजुटता को बचाए हुए है। पुस्तक में इन पहलुओं को भी विस्तार से रखा गया है, जिससे पाठक समझ पाता है कि आदिवासी जीवन केवल पीड़ा की कहानी नहीं, बल्कि जिजीविषा और सामूहिकता का भी प्रतीक है।
आदिवासियत पर चल रहे समकालीन विमर्श को समझने के लिए भी यह पुस्तक महत्त्वपूर्ण है। आदिवासियत का अर्थ केवल एक भौगोलिक या सांस्कृतिक पहचान नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न भी है। जब हम आदिवासियों की बात करते हैं, तो दरअसल हम उस हाशिये की चर्चा करते हैं जहाँ से समाज की मुख्यधारा का विकास अपने लिए संसाधन लेती है। चाय बागानों के संदर्भ में यह विमर्श और भी गहरा हो जाता है, क्योंकि यहाँ आदिवासी समुदायों का जीवन प्रत्यक्ष रूप से हमारे उपभोग से जुड़ा हुआ है।
भाषा और शैली की दृष्टि से भी यह पुस्तक उल्लेखनीय है। सरल और सहज भाषा में लिखी गई यह किताब शोधार्थियों के साथ-साथ आम पाठकों को भी आकर्षित करती है। लेखक ने कहीं भी अत्यधिक अकादमिक शब्दावली का बोझ नहीं डाला है, बल्कि जीवंत उदाहरणों और अनुभवों के माध्यम से विषय को प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि पुस्तक न केवल समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए, बल्कि किसी भी संवेदनशील पाठक के लिए प्रासंगिक और रोचक बन जाती है।
आज जब हम वैश्विक बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद के दौर में जी रहे हैं, ऐसे में यह ज़रूरी है कि हम अपने उपभोग की चीज़ों के पीछे छिपी सामाजिक कहानियों को भी समझें। यह पुस्तक हमें यही सिखाती है – कि केवल स्वाद और आनंद की दृष्टि से चाय को न देखें, बल्कि उन हाथों और उन जीवनों को भी याद रखें जिनकी मेहनत से यह प्याला हमारे सामने आता है।
इस दृष्टि से कुलदीप सिंह बम्पाल का यह कार्य केवल एक पुस्तक नहीं, बल्कि एक दस्तावेज़ है जो हमारी संवेदनाओं को झकझोरता है और हमें अधिक मानवीय दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि ‘चाय बागान की कहानी, आदिवासियों की जुबानी’ न केवल आदिवासियों की अनकही कहानियों को सामने लाती है, बल्कि यह हमारे समाज की उन गहरी परतों को भी उजागर करती है जिन्हें हम अक्सर नजरअंदाज़ कर देते हैं। यह पुस्तक श्रम, संस्कृति, इतिहास और सामाजिक न्याय के प्रश्नों को जोड़ती है और हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या हम सचमुच उन लोगों के प्रति न्याय कर पा रहे हैं जिनकी मेहनत पर हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी टिकी हुई है।
इसीलिए यह पुस्तक केवल एक शोधार्थी के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए महत्त्वपूर्ण है जो समाज की असल संरचना को समझना चाहता है। यह हमें चाय की चुस्की के साथ एक नए दृष्टिकोण की चुस्की भी देती है – एक ऐसा दृष्टिकोण जो श्रम, संघर्ष और आदिवासी अस्मिता की कड़वी-मीठी सच्चाइयों से रूबरू कराता है।
इस किताब के लिए यहां ऑर्डर किया जा सकता है-
https://www.amazon.in/-/hi/Kuldip-Singh-Bampal/dp/B0DXY71RDM
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