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भारतीय सिनेमा में चाय बागान और आदिवासी

जिस देश और बॉलीवुड की सुबह चाय के बिना नहीं होती, उसकी कहानियों में चाय बागान और उसके आदिवासी क्यों नहीं हैं? जबकि भारत दुनिया का नंबर वन सिनेमा बनाने वाला देश है। लेकिन जितनी बड़ी संख्या में ये फिल्में बनाता है, उसकी तुलना में उसके फिल्मोद्योग का दिल बहुत छोटा है। यही वजह है कि एक सदी बाद भी भारतीय फिल्मों में आदिवासी, दलित, पिछड़े आदि बहुसंख्यक समाज की कहानियां नहीं होती हैं।
toakhra December 28, 2021 1 min read

AK Pankaj

akpankaj@gmail.com

भारत में चाय की खेती अंगरेजी शासन ने शुरू की। चाय की खेती के लिए उत्तर-पूर्व के असम-बंगाल और दक्षिण भारत में निलगिरी की पहाड़ी ढलानों वाले इलाकों को चुना गया। मुश्किल यह थी कि भारत में चाय की खेती होती नहीं थी। इसलिए घने, दुर्गम और पहाड़ी ढलानों पर चाय बागान बनाने, और चाय उगाने के लिए मजदूर नहीं थे। तब अंगरेजों का ध्यान आदिवासियों पर गया। जिनके पास हर जोखिम उठा कर कोई भी काम कर लेने का परंपरागत ज्ञान, तरीका और अनुभव था। हालांकि उन्हें कुली बनाना कोई आसान काम नहीं था। लेकिन अंगरेज लोग गुलाम बनाने में माहिर थे। उनके साथ स्थानीय राजा, जमींदार, महाजन, सेना, अपराधी गिरोह, हत्यारे, लूटेरे, ठग और छल कपट करने वालों की पूरी फौज थी। ईसाई मिशनरियों का एक बड़ा हिस्सा भी अंगरेजी शासन के साथ था। इन सबके सहारे अंगरेजों ने आदिवासियों को चाय बागान बनाने और उसकी खेती के लिए मजबूर किया। यानी चाय के हर दाने में, उसकी हर बूंद में, उसकी हर चुस्की में, आदिवासियों का खून, पसीना, बलिदान और सपने हैं। जबरदस्त धोखा, विश्वास घात, हत्याएं, शोषण, और अंतहीन त्रासदी है।

जिस चाय के साथ हर एक भारतीय का दिन शुरू होता है, जीवन का हर खास लमहा यादगार बनता है, उस चाय के मजदूरों की कहानी साहित्य, कला, सिनेमा और मनोरंजन के अन्य माध्यमों में करीब दो सौ साल बाद भी अनकही है।

https://www.youtube.com/watch?v=02kUC0n5q5U

हालांकि भारतीय सिनेमा ने खूबसूरत लैंडस्केप, ग्रीनरी, कलरफुल लाइफ, मनोरम और दर्शनीय लोकेशन, और मन को मोह लेने वाले आकर्षक पहाड़ी संस्कृति के कारण चाय बागानों को अनेक मूवीज में फिल्माया है। विशेष कर गानों को फिल्माने में। लेकिन अंतहीन शोषण में सूख कर झड़ते चाय बागान के मजदूरों की कहानी को फिल्माने की जरूरत नहीं समझी। फिर भी जिन फिल्मों में चाय बागान के मजदूरों, और वहां की जिंदगी पर थोड़ा बहुत भी फोकस किया गया है, उनकी चर्चा हम आपके साथ करेंगे।

सबसे पहले बात करेंगे, ‘राही’ की। इस फिल्म का निर्माण 1952 में हुआ था, और रिलीज हुई थी 1953 में। मुल्कराज आनंद के अंगरेजी उपन्यास, ‘टू लीव्स एंड ए बड’ पर आधारित ‘राही’ के पटकथा लेखक और निर्देशक मशहूर कहानीकार और फिल्म मेकर ख्वाजा अहमद अब्बास थे। फिल्म की कहानी, एक एक्स-आर्मी मैन की है, जो चाय बागान में मैनेजर की नौकरी करने जाता है। जहां वह, मैनेजमेंट की नीतियों से तंग आकर और एक चाय मजदूर लड़की के प्यार में पड़कर मजदूरों का हमदर्द बन जाता है।

1954 में वेनिस और मॉस्को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में शामिल होने वाली यह पहली भारतीय फिल्म थी। जो देव आनंद, नलिनी जयवंत, बलराज साहनी, मनमोहन कृष्ण और डेविड के जानदार अभिनय से सजी थी। और जिसे, हिंदी में ‘राही’, तथा ‘अंगरेजी में द वेफरर’ नाम से रिलीज किया गया था। नया संसार बैनर में बनी राही, रूसी भाषा में भी ‘गंगा’ नाम से डब, और प्रदर्शित की गई थी। अनिल बिस्वास के मधुर धुनों पर हेमंत कुमार और गीता दत्त के गाये इसके गीत, हिंदी सिनेमा के क्लासिक्स हैं। इसके सिनेमेटोग्राफर रामचंद्रन थे।

1956 में बनी ‘एरा बातोर सूरो’ असमिया भाषा की फिल्म है। जिसकी कहानी के केंद्र में चाय बागान के मजदूर हैं। एक निर्देशक के रूप में भूपेन हजारिका की यह पहली फिल्म थी। हजारिका भी, ख्वाजा अहमद अब्बास की तरह इप्टा से जुड़े थे। शायद ‘राही’ की बेजोड़ बॉक्स ऑफिस सफलता से वे भी प्रेरित हुए होंगे, तभी तो उन्होंने भी अब्बास की तरह चाय बागान की कहानी चुनी। क्योंकि, ‘एरा बातोर सूरो’ फिल्म की थीम भी, असम के चाय मजदूरों को फोकस करती है। जिसमें वर्गीय आधार पर बंटे समाज के एक वर्ग द्वारा किए जाने वाले शोषण को भी दर्शाया गया है।

‘एरा बातोर सूरो’ के चौदह साल बाद आई थी, ‘सगीना महतो’। जे के कपूर द्वारा 1970 में निर्मित इस बांग्ला फिल्म के निर्देशक तपन सिन्हा थे। चाय मजदूरों के आंदोलन, और नक्सल पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म का हिंदी संस्करण ‘सगीना’ नाम से 1975 में आया। इसकी कहानी पूरी तरह से चाय मजदूरों के शोषण उत्पीड़न पर आधारित है। लेकिन यह फिल्म, एक तरह से नक्सलवादी राजनीति की आलोचना और विमर्श की फिल्म है। दिलीप कुमार, सायरा बानो, अपर्णा सेन और ओम प्रकाश जैसे स्टार कलाकारों वाली हिंदी सगीना, बंगाली सगीना महतो की तरह बॉक्स ऑफिस पर असफल रही। इसके लव सीन और गाने, दिलीप कुमार और सायरा बानो के उन दिनों की केमिस्ट्री, जो गजब की थी, उसके कारण बड़े ही रोमांटिक हैं।

1975 में और तीन फिल्में आई थीं, ‘केसा सोना’, ‘रतनलाल’ और ‘चमेली मेम साब’। तीनों असमिया भाषा में बनाई गई थी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, ‘केसा सोना’ का निर्माण खुद मजदूरों के संगठन ‘असम चाय मजदूर संघ’ ने किया था। लेकिन अफसोस, इस फिल्म के बारे में बहुत जानकारी नहीं मिलती। इसी तरह नलिन दोरा द्वारा निर्देशित ‘रतनलाल’ के बारे में भी जानकारी का अभाव है।

1975 में ही प्रदर्शित असमिया रोमांटिक ड्रामा फिल्म ‘चमेली मेमसाब’ के निर्देशक अब्दुल मजीद थे। इसमें चाय बागान के ब्रिटिश मालिक और एक मजदूर लड़की की लव स्टोरी है। जॉर्ज बेकर और बिनीता बोरगोहाईं ने फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई थी। यह फिल्म पत्रकार और लेखक, निरोद चौधरी की एक लघु कहानी पर आधारित है। ‘चमेली मेमसाब’ को आलोचकों और बॉक्स ऑफिस दोनों का भरपूर समर्थन मिला था। फिल्म का संगीत भूपेन हजारिका ने दिया था। जिसके लिए उन्हें 1975 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशन से नवाजा गया था। साथ ही इस फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ असमिया फीचर फिल्म का पुरस्कार भी जीता था।

1978 से 85 के बीच, चाय बागानों की कहानी को छूने वाली और आठ फिल्में बनीं। तीन बंगाली में, तीन हिंदी में, और एक-एक अंगरेजी व असमिया में। इनमें से दो, 1979 की बंगाली और 1981 की हिंदी में बनी, दोनों 1975 में असमिया में आई ‘चमेली मेमसाब’ की रीमेक थी। वहीं, शक्तिपद राजगुरु के बांग्ला उपन्यास पर 1981 में दो भाषाओं में फिल्म बनी। बांग्ला में ‘अनसुंधान’, और हिंदी में ‘बरसात की एक रात’। शक्ति सामंत द्वारा निर्देशित ‘बरसात की एक रात’ में अमिताभ बच्चन, अमजद खान, राखी गुलजार और उत्पल दत्त जैसे सुपर स्टार थे। अन्य तीन फिल्में हैं, 1978 में आई बांग्ला फिल्म ‘धनराज तामांग’, 1982 में रिलीज हुई असमिया मूवी ‘अपरूपा’, और 1985 की अंगरेजी फिल्म ‘द असम गार्डेन’।

‘अपरूपा’ 1982 में बनी असमिया भाषा की ड्रामा फिल्म है, जिसका निर्देशन जॉन बरुआ ने किया है। यह उनकी पहली फीचर फिल्म है। इसमें बीजू फुकन, सुहासिनी मुले, सुशील गोस्वामी और गिरीश कर्नाड आदि दिग्गज कलाकारों ने अभिनय किया है। यह हिंदी में भी ‘अपेक्षा’ नाम से रिलीज की गई थी। फिल्म की कहानी असम के एक अपर कास्ट की महिला पर केंद्रित है जिसे परिस्थितिवश चाय बागान के एक मालिक के साथ विवाह करना पड़ता है। पति की उपेक्षा से असंतुष्ट वह महिला अपने पूर्व प्रेमी के साथ संबंध बनाती है।

इसी तरह की थीम पर है संतोष सीवन की फिल्म, ‘बिफोर द रेंस’। यह फिल्म 2007 में आई थी। अंगरेजी और मलयालम, दो भाषाओं में एक साथ रिलीज हुई यह फिल्म भी चाय बागान के मालिक और अभिजात्य वर्ग के फिजिकल लव पर केंद्रित है।

इस सूची में अंतिम और सबसे उल्लेखनीय फिल्म है, 2013 में रिलीज हुई ‘परदेसी’। तेलुगू में बनी यह फिल्म चाय बागान और वहां के जीवन का ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसके निर्देशक हैं बाला। औपनिवेशिक राज में चाय बागान की शुरुआत और उसमें काम करने वाले मजदूरों की कहानी जितने प्रभावी ढंग से इस फिल्म में कही गई है, वह किसी और फिल्म में देखने को नहीं मिलती। चाय बागान के इतिहास और उसके मजदूरों के जीवन संघर्ष को जानने के लिए यह एक बेजोड़ फिल्म है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो एक सदी के भारतीय सिनेमा ने चाय बागानों के जीवन और समाज की उपेक्षा ही की है। यही हाल साहित्य का भी है। साहित्य में भी चाय मजदूरों के जीवन पर कालजयी रचनाओं को अभाव है।

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