AK Pankaj
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इतिहास कुछ ही लोगों को उनके काम के चलते लीजेंड बना देता है। नवगठित झारखंड में लगभग गुमनाम हो चुके लूथर तिग्गा वैसे लोगों में से एक हैं जिनको इतिहास ने जीते जी लीजेंड बना दिया है। आज से 61 साल पहले जब उन्होंने ऋत्विक घटक की बांग्ला फिल्म ‘अजांत्रिक’ (1958) में अभिनय किया था, तब उनको यह जरा भी ख्याल नहीं आया होगा कि वह जो काम कर रहे हैं, उसके चलते एक दिन वे लीजेंड बन जाएंगे। भारतीय सिनेमा के इतिहास में देश के पहले आदिवासी अभिनेता बनने का गौरव उन्हें प्राप्त होगा। क्योंकि उनसे और 1958 के पहले किसी आदिवासी का फिल्म में अभिनय करने का कोई इतिहास नहीं मिलता। अफसोस की बात है कि इस लीजेंड्री आदिवासी अभिनेता को पिछले साठ सालों में किसी ने खोजने की जरूरत नहीं समझी। राज्य बनने के बाद कई फिल्म समारोह हो गए, फिल्म बोर्ड बन गया, पर लूथर तिग्गा उपेक्षित ही रहे।
‘ऋत्विक बाबू से मिलना एक इत्तफाक था’ बच्चों सी चपलता के साथ चमकती हुई आंखों वाले लूथर तिग्गा कहते हैं। मानो जैसे कल की ही बात हो। मैं अपलक देख रहा हूं उनको। वंदना (टेटे) जी भी खामोश सुन रही हैं उनको। रंजीत उरांव का कैमरा 87 साल के उस बच्चे पर टिका हुआ है जिसे हमलोग पिछले दस साल से ढूंढ रहे थे। 1958 की क्लासिक फिल्म ‘अजांत्रिक’ में महज 6-7 मिनट का रोल था उनका। सह कलाकार थी परसादी कुजूर। फिल्म में जिसका नाम झुरनी था। इन दोनों के साथ दृश्य में थे बांग्ला के सबसे दमदार अभिनेता काली बनर्जी और जगद्दल। यानी 1920 मॉडल की एक पुरानी खटारा शेवरलेट कार। आज न काली बनर्जी हैं, न ऋत्विक दा, झुरनी और न ही शेवरलेट कार पर लूथर दा भरपूर सांसों के साथ हमारे बीच मौजूद हैं। इतिहास के उस पल का सजीव वर्णन करने के लिए कि ऋत्विक घटक ‘अजांत्रिक’ बनाने रांची ही क्यों आए और कैसे लूथर व परसादी को उसमें अभिनय का मौका मिला।
ऋत्विक घटक ‘अजांत्रिक’ बनाने के लिए आदिवासी क्षेत्र तलाश रहे थे। नार्थ-ईस्ट के नागालैंड तक ‘लंगटा’ जैसा घूम आए। लेकिन उनको झारखंड का खुखरा परगना (रांची से गुमला-लोहरदगा का क्षेत्र) ही पसंद आया। जहां वे इस फिल्म से पहले डॉक्यूमेंट्री बनाने के सिलसिले में पहले घूम चुके थे। 56 की बात होगी। वे रांची आए और कांके स्थित उरांव स्कूल ‘धुमकुड़िया’ के संचालक-प्रिंसिपल श्री जुलियुस तिग्गा से मिले। श्री जुलियुस आदिवासी महासभा के बड़े लीडर, एक महान शिक्षक और सांस्कृतिक अगुआ थे। उन्होंने एक बंदे को ऋत्विक दा की मदद में लगा दिया। पर वो अपने धीमे स्वभाव के कारण उनकी जरूरत के मुताबिक परफॉरमेंस नहीं कर सका। वह मेरे ही रिश्ते में था। तो इस तरह से मैं ऋत्विक दा की संपर्क में आया और उनका मुख्य सहयोगी बन गया।
लूथर तिग्गा बताते हैं कि ‘अजांत्रिक’ फिल्म की अधिकांश शूटिंग रांची, रामगढ़ और पुरुलिया में हुई है। कुछ दृश्यों की शूटिंग उड़ीसा में भी की गई थी। आदिवासी नाच-गाने वाला समूचा दृश्य रातू के बगले के गांव रानीखटंगा में और फिल्म का क्लाइमेक्स कांटाटोली स्थित वार सिमेट्री में फिल्माया गया। वे कहते हैं ’ऋत्विक दा से मेरा इसलिए बहुत बढ़िया संबंध हो गया क्योंकि मैं बंगला भाषा भी जानता था। इससे ऋत्विक बाबू और पूरी टीम को आदिवासी कलाकारों के साथ काम करने में बहुत सहूलियत हो गई। वे हमको बंगला में निर्देश देते जिसे मैं कुड़ुख भाषा में समझाता। आदिवासी सीन तो द्धत्विक दा ने मेरे ऊपर ही छोड़ दिया था। मैं लोगों को अभिनय करके बताता कि देखो ऐसे करना है।’
‘आप बंगला कैसे सीखे?’ पूछने पर हंसते हुए लूथर तिग्गा कहते हैं, ‘मैट्रिक में फेल हो गया था। दोबारा परीक्षा देने के लिए फीस भरने का पैसा नहीं था। जब मैं छोटा था तभी मेरे बाबा गुजर गए थे। उनके जाने के कुछ समय बाद मां भी नहीं रही। चाचा और गोतिया लोग पढ़ाना नहीं चाहते थे। मुझमें पढ़ने की ललक थी। इसलिए फीस का पैसा जुटाने-कमाने कलकत्ता चला गया। करीब-करीब दो साल से कुछ ज्यादा समय वहां रहा, पैसे कमाए और वापस लौटकर मैट्रिक की परीक्षा 1952 में पास की। कलकत्ता में रहते हुए ही मैं बंगला सीख गया था जो काम आया।’
उन्होंने बताया कि ऋत्विक घटक उनकी प्रतिभा के बहुत कायल थे। फिल्म निर्माण के दौरान वे उनको अपने साथ कई बार कलकत्ता ले गए। जहां उन्हें बिमल राय, उत्तम कुमार, मृणाल सेन जैसे उस दौर के कई फिल्मकारों, साहित्यकारों और नाटककारों से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। ऋत्विक दा सबसे उनका परिचय यह कहते हुए कराते कि वे नहीं रहते तो अजांत्रिक का बनना कितना मुश्किल था। बहुत ही संवेदनशील, बौद्धिक और आदिवासी समाज-संस्कृति को इज्जत देने वाले इंसान थे ऋत्विक दा। शूटिंग के दौरान रांची के लालपुर स्थित आर्या होटल में उनका और उनकी पूरी टीम का डेरा रहता।
‘आपको इतना अच्छा मौका मिला तो फिर फिल्म लाइन को ही क्यों नहीं अपना पेशा बनाया?’ इसके जवाब में लूथर दा कहते हैं मैं तो चाहता था। ऋत्विक बाबू मुझे अपने साथ बंबई भी ले जाना चाहते थे। लेकिन उनका कहना था कि ‘तीगा, जदि फिल्मे लाइने के मने आसा रखो ता होले भूक्खे मोरवार जन्ने बी प्रीपेयर। जदि आमी खेते ना पारबो होले तोमा के की कोरे खवाबो।’ काहे कि फिल्म लाइन में दूसरा काम कब मिलेगा, मिलेगा भी या नहीं, इसका कोई ठेक-ठेकाना नहीं रहता है। मैं शादीशुदा था। मेरे ऊपर ही परिवार की जिम्मेदारी थी। ऐसे में मैं ये रिस्क उठाने की स्थिति में नहीं था। इसलिए बंबई नहीं गया और न ही दोबारा कभी टालीगंज गया।
रातू थाना का अगड़ू उनका पुरखौती गांव है। वहीं के एक जुरनी उरांव (आसेरेन तिग्गा) और ख्रिस्त विश्वासी तिग्गा की संतान के रूप में उनका जन्म हुआ। माता-पिता के नहीं रहने के कारण बचनप बहुत अभावों में और हाड़तोड़ मेहनत करते बीता। 1960 के दशक में ब्लॉक डेवलेपमेंट के कर्मचारी के रूप में काम किया। पर वहां भ्रष्टाचार का जो माहौल था उसके लिए इनका मन राजी नहीं हुआ। वह नौकरी छोड़कर बीएसएनएल में आए और वहीं से रिटायर हुए। पत्नी असमानी तिग्गा और बच्चों के साथ रांची के ढुमसा टोली में रहते हैं। अच्छी कद-काठी है और स्वस्थ हैं। बस घुटने और डायबिटिज की तकलीफ है। पर इसके बावजूद जैसे ही आप उनसे फिल्म की बात करेंगे, तो उनके भीतर गुम हो गया 1958 के ‘अजांत्रिक’ का वह छैल-छबीला, बांका-सजीला आदिवासी अभिनेता अचानक सामने आकर खड़ा हो जाएगा। फिर आपको प्यार से ‘अजांत्रिक’ की शेवरलेट कार में बिठाएगा और आप 87 साल के एक लीजेंड्री बूढ़े के साथ इतिहास के सुनहरे दौर में प्रवेश कर जाएंगे।
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