AK Pankaj
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1855 में हुआ विश्वप्रसिद्ध संताल हूल भारत की पहली संगठित और सुनियोजित क्रांति है। इस क्रांति की शुरुआत 30 जून 1855 को झारखंड के एक छोटे से गांव भोगनाडीह से हुई थी। भोगनाडीह ‘दामिन-इ-कोह’ के नाम से एक विशेष रेवेन्यू क्षेत्र के अंतर्गत था जिसका सीमांकन 1832 में ब्रिटिश शासन ने संताल बसाहट को स्थायित्व प्रदान करने के लिए किया था। ब्रिटिश दस्तावेजों के अनुसार ‘दामिन-इ-कोह’, जो 1855-56 के हूल के बाद ‘संताल परगना’ बना, में संताल अपनी आजीविका व खेती के लिए आए और लाए गए थे। दामिन-इ-कोह के सीमांकन के आसपास 1838 में जहां मात्र 40 संताल गांव थे 1851 में बढ़कर वह 1,473 हो गए। जनसंख्या 3,000 से 82,795 हो गई। नतीजतन भूमि से प्राप्त होनेवाला राजस्व भी 6,682 की तुलना में 58,033 हो गया। मात्र 15 सालों के भीतर ही 10 गुणा हो गए राजस्व के पीछे था संतालों की अभूतपूर्व मेहनत और मेहनत की सामंती-महाजनी तथा औपनिवेशिक लूट।
दामिन-इ-कोह’ राजमहल के जंगलों-पहाड़ों के बीच का वह समतल हिस्सा है जहां वनोत्पाद, शिकार और थोड़ी बहुत झूम खेती करने वाले पहाड़िया आदिवासी नैसर्गिक रूप से रहते आ रहे थे। हूल से पहले राजमहल क्षेत्र में अंग्रेजों को सबसे पहले इन्हीं पहाड़िया लोगों के विरोधों का सामना करना पड़ा। अंग्रेज अधिकारी क्लीवलैंड ने कूटनीति अपनाते हुए इनसे मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने की दिशा में प्रशासनिक-कानूनी नियम बदले और उनकी पारंपरिक स्वशासी व्यवस्था को स्वीकार किया। फिर भी पहाड़िया पूर्ण स्वतंत्रता के लिए तिलका मांझी उर्फ जबरा पहाड़िया के नेतृत्व में छापामार लड़ाई लड़ते रहे। 1784 के आखिर में ब्रितानी हुकूमत पहाड़ियों लोगों को दबाने में पूरी तरह से सफल हुई, जब उन्होंने 13 जनवरी 1785 को तिलका को गिरफ्तार कर भागलुपर के चौराहे पर सरेआम फांसी दे दी। इसके अगले सात दशकों तक राजमहल निर्बाध रूप से महाजनों-सामंतों और ब्रिटिश अधिकारियों की लूट का निर्बाध चारागाह बना रहा। लेकिन 1855 की जून के आखिरी दिन जब भोगनाडीह में दसियों हजार संताल जुटे और उनके समर्थन से सिदो परगना ने ‘ठाकुर का परवाना’ जारी किया तो ब्रिटिश शासन के होश उड़ गए।
हूल के पहले और उसके बाद भी हमें भारतीय इतिहास में ऐसी किसी जनक्रांति का विवरण नहीं मिलता, जो पूरी तैयारी, जन-घोषणा और शासक वर्ग को लिखित तौर पर सूचित कर डंके की चोट पर की गई हो। 1857 का सिपाही विद्रोह, जिसे भारत की प्रथम जनक्रांति बताया जाता है, वह व्यक्तिगत प्रतिक्रियास्वरूप और स्वतःस्फुर्त ढंग से शुरू हुई थी। सिपाही विद्रोह या 1857 का गदर पहले से सुनियोजित, सुसंगठित और सुप्रचारित बिल्कुल नहीं था। इसके बावजूद इतिहासकारों ने संताल हूल को प्रथम भारतीय जनक्रांति यानी स्वतंत्रता संग्राम के रूप में स्वीकार नहीं किया और यह प्रवृति आज भी भारतीय इतिहास लेखन में मौजूद है। जबकि बीते हुए दशकों में संताल हूल पर देश और दुनिया भर में पर्याप्त अध्ययन-लेखन हुए हैं और यह रेखांकित किया जा चुका है कि हूल ही भारतीय क्रांति का पहला गौरवशाली पन्ना है।
दूसरी बात यह कि संताल हूल मात्र ‘महाजनों और सामंती शोषण’ के विरूद्ध हुआ स्वतःस्फुर्त आंदोलन नहीं था। उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार ब्रिटिश शासन के खिलाफ यह एक सुनियोजित युद्ध था। जिसकी तैयारियां भोगनाडीह गांव के सिदो मुर्मू अपने भाइयों कान्हू, चांद व भैरव, इलाके के प्रमुख संताल बुजुर्गों, सरदारों और पहाड़िया, अहीर, लुहार आदि अन्य स्थानीय कारीगर एवं खेतीहर समुदायों के साथ एकताबद्ध होकर की थी। जब हूल की सारी सामरिक तैयारियां पूरी हो गई, सैन्य दल, छापामार टुकड़ियां, सैन्य भर्ती-प्रशिक्षण दल, गुप्तचर दल, आर्थिक संसाधन जुटाव दल, रसद दल, प्रचार दल, मदद दल आदि गठित कर लिए गए, रणनीतिक योजना को अंजाम दे दिया गया, तब 30 जून को विशाल सभा बुला कर अंग्रेजों को देश छोड़ने का ‘सम्मन’ जारी कर दिया गया। इस सम्मन यानी ‘ठाकुर का परवाना’ को सिदो परगना के निर्देश पर किरता, भादू और सुन्नो मांझी ने लिखा था। गौर करने वाली बात है कि हूल संबंधी सम्मन और अन्य प्रचार सामग्रियां तीन भाषाओं और अलग-अलग लिपियों में लिखी गई थी। हिंदी, बांग्ला, संताली भाषा तथा कैथी और बांग्ला लिपि में। यही नहीं, ब्रिटिश मुद्रा को अमान्य करते हुए आर्थिक गतिविधियों के लिए विशेष तौर पर हूल के लड़ाकों ने नये सिक्के जारी किए थे।
‘ठाकुर का परवाना’ जारी करते हुए सिदो मुर्मू ने कहा था- ‘हम नहीं लड़ रहे हैं, यह युद्ध स्वयं ठाकुर (संतालों के सृष्टिकर्ता) लड़ रहे हैं, जिन्होंने यह सृष्टि रची है।’ भागलपुर, बीरभूम के कमिश्नर और जिला मैजिस्ट्रेटों और स्थानीय पुलिस थानों व अन्य प्रमुख अधिकारियों को भेजे गए सम्मन में स्पष्ट कहा गया था- 1. राजस्व वसूलने का अधिकार सिर्फ संतालों को है। 2. प्रत्येक भैंस-हल पर सालाना 2 रु., बैल-हल पर एक आना और गाय-हल पर आधा आना लगान लिया जाएगा। 3. सूद की दर एक रुपये पर सालाना एक पैसा होगा। 4. सूदखोरों, महाजनों और जमींदारों को तत्काल यह क्षेत्र खाली कर चले जाना होगा। 5. ‘ठाकुर जिउ’ (संतालों के सर्वोच्च ईश्वर) के आदेश पर समूचे क्षेत्र पर संतालों का राज पुनर्स्थापित किया जाता है और अब सिदो परगना ‘ठाकुर राज’ के शासन प्रमुख हैं। 6. सभी ब्रिटिश अधिकारी और थानेदार को सूचित किया जाता है कि वे तत्काल आकर सिदो परगना के दरबार में हाजिरी लगाएं अन्यथा उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
जाहिर है ब्रिटिश शासन इसे मानने को तैयार नहीं थी। लिहाजा जुलाई का पहला सप्ताह बीतते ही संताल और स्थानीय जनता ने हूल छेड़ दिया। बाजार, महाजनों-सामंतों के ठिकानों, थानों, ब्रिटिश प्रशानिक केंद्रों और थानों पर सुनियोजित ढंग से हमले हुए। 1856 तक सघन रूप से चले इस जन-युद्ध को दबाने में कई ब्रिटिश टुकड़ियां लगीं पर हूल के लड़ाके अंग्रेजी राज के विरूद्ध 1860-65 तक रुक-रुक कर परंतु लगातार लड़ते रहे। इस ऐतिहासिक हूल में 52 गांव पूरी तरह से और कुल मिलाकर लगभग 50000 से ज्यादा लोग सीधे-सीधे तौर पर शामिल हुए थे। सैंकड़ों संताल और अन्य स्थानीय समुदायों के लोग हूल में शहीद हुए, हजारों ने देश निकाला और सश्रम आजीवन कारावास से लेकर आंशिक जेल यातना तक की सजा पायी। इनमें बड़ी संख्या महिलाओं की थी जिनका नेतृत्व फूलो-झानो आदि ने किया था। जिनमें से अधिकांश वीरांगनाओं के नाम हम नहीं जानते।
यह भी बहुत कम लोग जानते हैं कि हूल का मुख्य रणनीतिकार सिदो नहीं वरन् एक अन्य संताल योद्धा कोलिया उर्फ चेरका संताल था। उसकी गिरफ्तारी पर ब्रिटिश सरकार ने सिदो मुर्मू से दोगुणा ज्यादा ईनाम की राशि रखी थी। सिदो पर पांच हजार का ईनाम था तो कोलिया संताल पर दस हजार। संतालों के अलावा दूसरे समुदायों के जो प्रमुख लोग थे, उनमें मंगरा पुजहर (पहाड़िया), गोरेया पुजहर (पहाड़िया), हरदास जमादार, ठाकुर दास, बेचु राय (अहीर), गंदू लोहरा, मान सिङ, गुरुचरण दास आदि हैं, जो भारत की प्रथम जनक्रांति हूल में शहीद हुए अथवा कारावास की सजा भुगती। यानी संताल हूल में दामिन-इ-कोह में रहने वाले सभी सामाजिक समूहों के लोग अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की लड़ाई में बराबर के भागीदार थे।
लिहाजा, संताल हूल छोटे-मोटे स्तर पर हुआ कोई स्वतःस्फुर्त स्थानीय विद्रोह नहीं था। यह महाजनी व्यवस्था और ब्रिटिश शासन के विरूद्ध हुआ घोषित जनयुद्ध था। बाकायदा लिखित रूप में इसकी घोषणा की गई थी और अत्याचारियों को इलाका छोड़ने तथा ब्रिटिश राज को संतालों के आगे घुटने टेकने के लिए ‘ठाकुर का परवाना’ (सम्मन) जारी किया गया था। 1857 का सिपाही विद्रोह इसकी तुलना में स्वतःस्फुर्त हुआ था जिसमें बाद में सामंत और भारतीय जनता बड़े पैमाने पर शामिल होती चली गई थी। इस हूल का ही परिणाम है आदिवासी अधिकारों के प्रति शासन-प्रशासन के रवैए में बदलाव आया, एक विशेष प्रशासनिक ईकाई के रूप में ‘संताल परगना’ का गठन हुआ और आगे चलकर संताल परगना टेनेंसी एक्ट बना। इन सब तथ्यों के बावजूद अगर आज भी देश के इतिहासकार इसे भारत की पहली जनक्रांति या स्वतंत्रता संग्राम नहीं मान रहे हैं, तो इसे भारतीय इतिहास के साथ किया जा रहा ‘ऐतिहासिक अन्याय’ ही कहा जाएगा।
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