AK Pankaj
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भारतीय लोगों की भागीदारी वाली मॉडर्न पॉलिटिकल डेमोक्रेटिक लेजिस्लेटिव सिस्टम की शुरुआत 1921 से हुई। जब अंगरेजी शासन ने 1919 के इंडिया एक्ट के अनुसार केंद्रीय और प्रांतीय स्तर पर गवर्नर लेजिस्लेटिव काउंसिलों की स्थापना की। अंगरेजों के आगमन के पहले भारतीय समाज स्थानीय स्वशासन पद्धति से शासित होता था। गैर-आदिवासी समाज में पंच और राजतंत्र की शासन प्रणाली थी जहां राजा और मुखिया कुछ लोगों की मदद से राजकाज चलाते थे। जबकि आदिवासी समाज में स्वशासन की प्रणाली प्रचलित थी। अंगरेजी राज की स्थापना के बाद, भारत में एक नई शासन प्रणाली का आरंभ हुआ जिसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं थी। पर जैसे-जैसे भारत और दुनिया भर के देशों में औपनिवेशिक दासता के खिलाफ मुक्ति संघर्ष मजबूत होता गया, वैसे-वैसे ब्रिटिश सत्ता को शासन प्रणाली में सुधार करने के लिए बाध्य होना पड़ा। भारत में भी आदिवासियों द्वारा किए जा रहे उपनिवेश और साम्राज्यवाद विरोधी युद्धों के कारण तथा स्वतंत्रता आंदोलन के दबाव में, खास कर के प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, अंगरेजों को डेमोक्रेटिक रिफॉर्म की प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी। परिणामस्वरूप, 1921 में लेजिस्लेटिव सिस्टम की शुरुआत की गई। एक नई विधायी व्यवस्था, जिसे जनप्रतिनिधियों की भागीदारी वाली विधानसभा और लोकसभा कहा जाता है।
1921 में स्थापित सेंट्रल और स्टेट लेबल के गवर्नर काउंसिल्स में पहली बार भारतीयों को शासन में भागीदारी करने का अवसर मिला। इसके लिए उन्हें निर्वाचन के द्वारा चुन कर जनप्रतिनिधि बनना जरूरी था। उस समय वोटर होना और प्रत्याशी बन पाना बहुत मुश्किल था। क्योंकि पैसे वाले, रूतबा और रसूख रखने वाले धनी तथा उच्च जातियों के कुलीन और अभिजात्य लोग ही वोट दे सकते थे, और चुनाव में भी वही भाग ले सकते थे। ऐसे में किसी आदिवासी का चुनाव जीतकर लेजिस्लेटिव का जनप्रतिनिधि बन पाना नामुमकिन ही नहीं, असंभव था।
पर 1921 के पहले विधायी चुनाव में भारत के दो आदिवासियों ने इस असंभव को संभव में बदल डाला। जंगली, गंवार, कोल, बर्बर और हेड हंटर माने जाने वाले आदिवासी समाज के जिन दो लोगों ने यह इतिहास रचा है, उनमें से एक उत्तर-पूर्व से हैं, तो दूसरा सेंट्रल इंडिया से। रेवरेंड जे जे एम निकोल्स राय और दुलु मानकी। एक ईसाई आदिवासी तो दूसरा आदि धर्मावलंबी आदिवासी। रेवरेंड जे जे एम निकोल्स राय शिलांग, मेघालय के खासी आदिवासी समुदाय से थे। वहीं, दुलु मानकी झारखंड के कोल्हान मुख्यालय चाईबासा के ‘हो’ आदिवासी थे। रेवरेंड निकोल्स राय अच्छे-खासे पढ़े-लिखे थे और उन्हें चर्च विश्वासियों का भी समर्थन प्राप्त था, लेकिन दुलु मानकी शायद, मात्र तीसरी क्लास तक ही पढ़े थे। ये दोनों आदिवासी 1921 की प्रांतीय लेजिस्लेटिव एसेंबली के लिए चुनाव में खड़े हुए और भारी मतों से जीतकर जनप्रतिनिधि बने। यहीं से भारतीय विधायी व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रणाली में आदिवासियों का प्रवेश, भागीदारी और हस्तक्षेप का इतिहास शुरू होता है।
शिलांग के रेवरेंड निकोल्स के मुकाबले, दुलु मानकी का एमएलसी बनना, अनेक दृष्टियों से ऐतिहासिक है। एक तो वे रेवरेंड निकोल्स की तुलना में कम पढ़े-लिखे थे, दूसरे, उनके वोटर भी इस नई चुनावी पद्धति से वाकिफ नहीं थे, और अधिकांश अशिक्षित थे। सबसे महत्वपूर्ण यह, कि सेंट्रल इंडिया, जहां आदिवासी समाज चारों ओर से बाहरी लोगों से घिरा था, उनके प्रशासनिक मुख्यालय, सेना, पुलिस, व्यापार-उद्योग, बाजार और अपराधी गिरोहों के सीधे मुकाबले में था, वे जीत पाने में सफल हुए थे। और वह भी, अन रिजर्व सीट से। क्योंकि उस समय आदिवासियों और दलितों के लिए सीट नहीं रिजर्व की गई थी। बल्कि यह प्रावधान किया गया था कि आदिवासी, दलित, महिला और पिछड़े कमजोर वर्ग का प्रतिनिधित्व नोमिनेशन से होगा, जो सीधे गवर्नर द्वारा किया जाएगा।
दुलु मानकी, भारतीय इतिहास में अपने स्वतंत्रता युद्धों के लिए ‘लड़ाका’ नाम से विश्व प्रसिद्ध हो आदिवासी समुदाय से थे, और वे चाईबासा, यानी दुम्बीसाई गांव के रहने वाले थे। अंगरेजों के आने से पहले चाईबासा शहर का अधिकांश हिस्सा दुम्बीसाई गांव के अंतर्गत था। यह गांव मुंडा-मानकी स्वशासन परंपरा के तहत कई पीड़ों में बँटे कोल्हान के गुमड़ा पीड़ के भीतर है, जहां के मानकी, यानी सर्वोच्च परंपरिक नेता दुलु देवगम थे। 1840 में जब हो आदिवासियों का इलाका ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया, तो मुंडा-मानकी स्वशासन परंपरा को मान्यता देते हुए अंगरेजों ने कोल्हान क्षेत्र को देशी रियासतों से अलग माना, और कोल्हान के लिए एक नई प्रशासनिक व्यवस्था कायम की थी, जो देशी रियासतों और ब्रिटिश शासित प्रांतों से स्वायत्त था। इस स्वायत्त प्रशासनिक इकाई को अंगरेजों ने ‘कोल्हान गवर्नमेंट इस्टेट’ कहा, और जिसका प्रशासनिक मुख्यालय दुम्बीसाई गांव की जमीन पर स्थापित किया। मतलब, दुम्बीसाई गांव का ही एक हिस्सा चाईबासा कहलाया।
उन्नीसवीं सदी के अंत में, गुमड़ा पीड़ के इसी दुम्बीसाई यानी चाईबासा में, देवगम गोत्र वाले मानकी परिवार में दुलु का जन्म हुआ था। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और कुशल नेतृत्व के कारण, ये एक बहुत लोकप्रिय मानकी थे। इसी वजह से ये न केवल कोल्हान के सिंहभूम, बल्कि समूचे झारखंड में दुलु देवगम की बजाय दुलु मानकी के रूप में प्रसिद्ध हुए।
दुलु मानकी, आदिवासी इतिहास के उस गौरवशाली अध्याय का नाम है, जिसने आज से सौ साल पहले सेंट्रल इंडिया से, यानी भारत के पहले निर्वाचित जनप्रतिनिधि होने का असंभव कारनामा किया। भारत के लेजिस्लेटिव और पार्लियामेंट्री डेमोक्रेटिक सिस्टम में दुलु मानकी से ही भागीदारी का इतिहास शुरू होता है। आज के भारत की चुनावी लोकतांत्रिक व्यवस्था में आदिवासियों को जो कुछ भी हासिल है, निःसंदेह उसका श्रेय दुलु मानकी और रेवरेंड जे जे एम निकोल्स राय को है। जिन्होंने आज से सौ साल पहले आदिवासी अस्तित्व और सरवाइवल के लिए एक बाहरी सिस्टम को डी कोड करने का अभूतपूर्व साहस किया था। इनके द्वारा रखी गई इसी मजबूत नींव पर आगे चलकर आदिवासियों के सुप्रीम लीडर जसयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियत की राजनीति को स्थापित किया।
इन दोनों आदिवासी पुरखों, दुलु मानकी और रेवरेंड जे जे एम निकोल्स राय को हूल जोहार।
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