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भूमि के मालिकाना हक पर हुआ आजाद भारत का पहला आदिवासी जनसंहारः चंदवा-रूपसपुर

आजादी के बाद भूमि अधिकार के सवाल पर हुआ पहला और सबसे खूँखार जनसंहार चंदवा-रूपसपुर था। सरकारी बयान के अनुसार जिसमें चौदह संथाल आदिवासियों को जिंदा जला दिया गया था और 36 लोग बुरी तरह से घायल हुए थे।
toakhra December 9, 2021 1 min read

AK Pankaj

akpankaj@gmail.com

आज से 50 साल पहले हुआ था, एक हत्या कांड! बहुत ही भयानक और किसी के भी दिलो दिमाग को झकझोर कर रख देने वाला। मानवता और लोकतंत्र को शर्म सार कर देने वाला। एक ऐसा जनसंहार; जो आजादी के बाद भूमि अधिकार के सवाल पर हुआ पहला और सबसे खूँखार जनसंहार था। सरकारी बयान के अनुसार जिसमें चौदह संथाल आदिवासियों को जिंदा जला दिया गया था और 36 लोग बुरी तरह से घायल हुए थे।

हालांकि कांग्रेसी आदिवासी नेता पृथ्वी चंद किस्कू जो उस समय एमएलसी थे, उनका आरोप था कि मारे गए संथाल आदिवासियों की संख्या 14 से ज्यादा है। उनके अनुसार, “चौदह के अलावे अन्य मारे गए संथालों की लाश को सामंत के लठैतों ने कहीं दूर निर्जन में ले जाकर जला दिया था।“ (विकास कुमार झा, बिहारः राजनीति का अपराधीकरण, सृष्टि प्रकाशन, 1992, पृ. 179)

यह जन संहार हुआ था, पूर्णिया जिला बिहार के चंदवा-रूपसपुर गांव में। आज से ठीक पचास साल पहले। नवम्बर के महीने में। तारीख थी, 1971 की 22 नवंबर, और दिन था सोमवार।

घटना करीब तीन चार बजे के आसपास की है। जब चंदवा के जमींदार लक्ष्मीनारायण सुधांशु के निर्देश पर उसके बेटे प्रद्युमन सिंह और भतीजे रामाधार सिंह के नेतृत्व में सैंकड़ों हत्यारों ने रूपसपुर गांव के संथाल बस्ती को घेर लिया। फिर तलवार, गंड़ासा, फरसा लेकर निहत्थे आदिवासियों पर टूट पड़े। उन पर अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे।

लक्ष्मीनारायण सुधांशु की इस हत्यारी योजना से बेखबर संथाल आदिवासियों ने घरों में घुस कर जान बचाने की कोशिश की। कुछ लोगों ने उनका मुकाबला तीरों से किया। पर खतरनाक हथियारों से लैस खूँखार हत्यारों के सामने वे सब टिक नहीं पाए। जमींदारों की निजी सेना ने, जिनमें उच्च और पिछड़ी जातियों के बड़े और छोटे भूस्वामी शामिल थे, दर्जनों लोगों को गोलियों और गंड़ासों से मार डाला, कइयों को जिंदा जला दिया।

इस क्रूरतम जन संहार में मारे जाने वालों में अस्सी साल के बूढ़ों से लेकर औरत-मर्द समेत तीन साल तक के दुधमुँहे बच्चे तक शामिल थे। मानवता के अपराधियों ने महिलाओं के साथ गंदा काम किया, फिर उन्हें नंगा करके दौड़ाया और गोली मार दी।

भूमि अधिकार के सवाल पर, आजादी के बाद देश में और बिहार में हुआ यह पहला सामूहिक जन संहार था। संथाल आदिवासियों को जमींदारों और भूस्वामियों ने इसलिए जिंदा जलाया, क्योंकि वे उस जमीन पर अपना हक छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, जिसे वे कई पीढ़ियों से जोतते चले आ रहे थे। जिस जमीन को उनके पुरखों ने आबाद किया था। खेती करने और रहने लायक बनाया था। जबकि, जमींदारों का दावा था कि ये जमीन उनकी है। जिसे उन्होंने संथालों को बँटाई पर दी है। पर अब वे लोग जमीन का मालिक बनना चाहते हैं। उस पर दावा कर रहे हैं।

यानी 22 नवम्बर 1971 को हुआ आदिवासियों का बर्बर जनसंहार, 1971 के बाद बिहार में हुए बेलछी, पिपरा, पारस बिगहा, दलेलचक बघौरा और बथानी टोला जनसंहारों से बिल्कुल अलग था। क्योंकि इन सबके मूल में सामंतों और उच्च जातियों की दबंगई थी, जातिगत उत्पीड़न था, बेइज्जती थी। और था, खेत मजदूरी का सवाल। लेकिन, रूपसपुर-चंदवा का सवाल सीधे-सीधे जमीन पर अधिकार का था।

कोशी अंचल और पूर्णिया के इलाके के आदिवासियों का यह सवाल बहुत पुराना था। इसकी जड़ें उस इतिहास में थी जिसके अनुसार कोशी की दलदली और जंगली जमीन को आबाद करने और खेती योग्य बनाने का काम आदिवासियों ने किया था। जिस पर छोटे-बड़े जमींदारों, अगड़ी-पिछड़ी जातियों के हिंदू और मुस्लिम भूस्वामियों ने दबंगई से, और सर्वे सेटलमेंट के दौरान पट्टे बनाकर उस पर कब्जा कर लिया था। नतीजतन, अपनी ही बनाई गई जमीन पर अब आदिवासी लोग बँटाईदार थे और सामंत लोग मालिक।

रूपसपुर-चंदवा जनसंहार की योजना बनाने वाला मास्टरमाइंड चंदवा का जमींदार लक्ष्मीनारायण सुधांशु था। पचास के दशक का सबसे प्रतिष्ठित राजनीतिज्ञ और साहित्यकार। जो बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष और बिहार विधानसभा का सभापति रह चुका था। और, जनसंहार के समय जो बिहार राष्ट्रभाषा समिति का अध्यक्ष था। साहित्य समाज और राजनीति की त्रिवेणी माना जाने वाला डॉक्टर लक्ष्मीनारायण सुधांशु ही रूपसपुर-चंदवा आदिवासी जनसंहार का मुख्य सूत्रधार था।

बिहार के पत्रकार विकास कुमार झा ने लिखा है- ”यह पहली घटना थी जब बिहार के नरसंहार के सिलसिले में बिहार विधानसभा अध्यक्ष जैसे पद पर रह चुके दिग्गज राजनीतिक का नाम सीधे-सीधे आया था। इस घटना के कुछ ही समय पहले डॉ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु बिहार विधानसभा के अध्यक्ष पद से हटे थे। उनकी गिनती रूतबेदार विधानसभा अध्यक्ष के रूप में होती थी। डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में डॉ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु 1950 से 1952 तक बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे। राजनीति में वे पंडित नेहरू के प्रियपात्रों में से एक थे। पर राजनीति के अलावे हिंदी साहित्य जगत में भी डॉ. सुधांशु की अपार ख्याति दी।“ (विकास कुमार झा, बिहारः राजनीति का अपराधीकरण, सृष्टि प्रकाशन, 1992, पृ. 179)

झारखंड के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी नेता और सांसद एके राय ने घटनास्थल का दौरा करने के बाद एक रपट लिखी थी। इस रपट के अनुसार भी लक्ष्मीनारायण सुधांशु ही इस जनसंहार के मुख्य योजनाकार थे – ”जब मैं चार दिसंबर, 71 को पूर्णिया निरीक्षण के लिए गया था तो पूर्णिया अस्पताल में श्री ताला हेम्बरम (जो घायल थे) और श्री मोहन बास्की, जो बंदूक की गोली से घायल हुए हैं, ने आक्रमणकारियों में श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशु तथा उनके पुत्र श्री पदम नारायण सिंह का नाम लिया था। पूर्णिया के जिला-मजिस्ट्रेट ने घटना के समय लक्ष्मीनारायण सुधांशु की उपस्थिति की पुष्टि की थी और फिर बाद में मैंने जाना कि तीन आदिवासी स्त्रियों ने भी मुख्यमंत्री के सामने लक्ष्मीनारायण सुधांशु का नाम लिया था।“ (फिलहाल, पटना, जनवरी 1972)

चंदवा-रूपसपुर बर्बर आदिवासी हत्याकांड की खबर बिहार और देश को तीन दिन बाद मिली। वह भी तब, जब तत्कालीन सोशलिस्ट पार्टी और बिहार विधासभा में विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर ने 25 नवंबर 1971 को पटना में एक प्रेस-कांफ्रेंस के जरिए इस मामले को उजागर कर दिया। श्री ठाकुर का बयान टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘14 sharecroppers allegedely killed by landlords’ men’ शीर्षक से छपी जिसमें उन्होंने घटना की पूरी जानकारी देते हुए कहा था, ”इसी तरह की घटनाएं राज्य में 12 अन्य जगहों पर हुई हैं और हर मामले में पुलिस और कार्यपालिका मूकदर्शक बनी रही।“ (टाइम्स ऑफ इंडिया, 26 नवंबर 1971, पृ. 11)

कर्पूरी ठाकुर के प्रेस कांफ्रेंस और सीपीआई द्वारा सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा के दबाव के बाद ही मुख्यमंत्री ने घटना के छह दिन बाद 28 नवंबर को अपना मुंह खोला। उस समय बिहार की संविद (संयुक्त विधायक दल) के मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री थे। श्री शास्त्री दलित परिवार से थे और पूर्णिया के ही थे। 1952 में धमदाहा (रूपसपुर-चंदवा धमदाहा प्रखंड के अंतर्गत ही है) विधानसभा क्षेत्र से जीतकर वे विधायी राजनीति में आए थे और श्रीकृष्ण सिंह से लेकर बाद के सभी कांग्रेसी सरकारों में मंत्री रहे थे। 28 नवंबर 1971 को प्रेस को दिए गए अपने बयान में मुख्यमंत्री ने तब बस केवल इतना ही कहा था, रूपसपुर-चंदवा में हुई ”बेहद अमानवीय, क्रूर और भीषण घटना में दस संथालों की गोली मारकर हत्या कर दी गई और चार को जिंदा जला दिया गया। नरसंहार के दोषियों को दंडित करने में सरकार हरगिज नहीं चूकेगी।“ (बिहारः राजनीति का अपराधीकरण, पृ. 179)

इससे ज्यादा मुख्यमंत्री शास्त्री कुछ कह भी नहीं सकते थे। क्योंकि उस समय के अगड़ी जातियों के राजनेता हों, दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री हों या कि पिछड़ा समाज के सुप्रसिद्ध हिंदी कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु हों, सब के सब डॉक्टर लक्ष्मीनारायण सुधांशु के बेहद खास दोस्त थे। इसलिए न तो लक्ष्मीनारायण सुधांशु की, और ना ही आजादी के बाद जमीन के सवाल पर हुए इस पहले हत्याकांड में शामिल एक भी आरोपी को कोई सजा मिली। क्योंकि, सरकार, पुलिस-प्रशासन, मीडिया और कोर्ट सब उन्हीं के थे।

https://youtu.be/4HJXtc-2k8A

फिर भी बिहार से लेकर देश के दोनों सदनों में इस पर जब काफी हल्ला हुआ, तो लक्ष्मीनारायण सुधांशु की गिरफ्तारी नाममात्र के लिए की गई। 8 दिसंबर 1971 को पटना स्थित आवास में उसको ‘नजरबंद’ किया गया। बाद में पुत्र प्रद्युमन सिंह समेत उसे और जनसंहार के सभी आरोपियो को जमानत पर रिहा कर दिया गया। कोर्ट में यह केस 16 सालों तक चला और अंत में पटना हाई कोर्ट ने 9 दिसंबर 1987 के अपने फैसले में यह कहते हुए कि, ”एक आपराधिक मुकदमे में अभियोजन हर मामले में नीयत साबित करने के लिए बाध्य नहीं है। लेकिन आज के मामले में स्वाभाविक सवाल उठता है कि आखिर गरीब संथालों के खिलाफ ऐसा बर्बर और जघन्य अपराध क्यों किया गया। वर्तमान मामले में यह प्रश्न अनुत्तरित है“, रूपसपुर-चंदवा के सभी आरोपी अपराधियों को दोषमुक्त करार दे दिया। (Shankar Kumar Singh v. State of Bihar, legitquest.com/case/shankar-kumar-singh-v-state-of-bihar/F1EA1, 09-12-1987)

न्यायालयों के इस रवैए पर प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो. आनंद चक्रवर्ती की टिप्पणी है- ”मेरे विचार से, यह कथन, अभियोजन पक्ष की निंदा करते हुए, अस्पष्ट रूप से ऐसा सुझाव देता है कि चंदवा-रूपसपुर के संथालों पर हमला क्यों किया गया था, यह पूरी तरह से साफ नहीं हैं। जो एक झटके में धमदाहा में मालिकों के खिलाफ उनके साथी आदिवासी बटाईदारों द्वारा भूमि अधिकारों के लिए किए गए संघर्ष के समूचे इतिहास को भी मिटा देता है।…चंदवा-रूपसपुर मामले में इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है। 9 दिसंबर 1987 के फैसले में पटना हाई कोर्ट ने नीचली अदालत में सजा पाए अपराधियों को बरी कर दिया। पटना हाई कोर्ट का यह फैसला आजादी के बाद बिहार में न्याय प्रणाली की एक बड़ी विफलता का पहला उदाहरण है जिस पर कमजोरों के खिलाफ सामूहिक अपराध के लिए दबंगों को जवाबदेह ठहराने की जिम्मेदारी है।“

हम पूर्णिया कोर्ट में हारे. पटना हाई कोर्ट में हारे. लेकिन हमलोग जमीन पर और जमीन कभी नहीं हारे.

एक संताल आदिवासी, धमदाहा (पूर्णिया)

चंदवा-रूपसपुर मामले में लोकसभा में दो बार उठा था। पहली बार 29 नवंबर 1971 में और दूसरी बार 23 दिसंबर 1971 को। राज्यसभा में यह मुद्दा पहली दिसंबर 1971 को ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के जरिए उठाया गया था। तीनों ही बार संसद में आदिवासी और दलित सदस्यों ने ऐसे जनसंहारों को रोकने के लिए तत्काल भूमि सुधार कानून में संशोधन और उसे सख्ती से लागू करने, सीबीआई और संसदीय समिति द्वारा मामले की निष्पक्ष जांच करने की मांग की थी। पर तत्कालीन गृहमंत्री केसी पंत ने यह कह कर कि ये राज्य का मामला है, सदस्यों की मांग ठुकरा दी थी।

प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस पर लोकसभा में कहा- ”जहां तक इस घटना-विशेष का संबंध है, मैं केवल इतना कहना चाहती हूं कि जांच जारी है। जहां तक मुझे पता है, सबकुछ ठीक चल रहा है। अब कोई शिकायत नहीं है। शुरुआत में कई शिकायतें थीं। हम बिहार सरकार के बहुत निकट संपर्क में हैं और यदि आवश्यक हुआ तो केंद्र भी इसमें दखल दे सकता है। इस तरह के अपराध की कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। …मैं सदन के सदस्यों की इच्छा से सहमत हूं और पूरी तरह से उनके साथ हूं कि इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो इसके लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।“ (लोकसभा डिबेट्स, 23 दिसंबर 1971)

बहरहाल, रूपसपुर-चंदवा जनसंहार के 50 साल बाद भी बंटाइदार संथालों और भूस्वामियों के बीच का मामला आज तक अनसुलझा है। इस घटना के बाद भी जमीन के सवाल पर हिंसात्मक झड़पें होती रहती हैं। एक सदी से भी ज्यादा समय से सामंती हिंसा झेल रहे आदिवासी लोग जमीन पर अपना कायमी और सिकमी बंटाईदारी हक छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। उनकी मांग है कि बिहार टेनेंसी एक्ट के अंतर्गत जमीन पर उनका जो सिकमी हक है उसे सख्ती से लागू किया जाए।

पर जाहिर है कि दबंगों के बिहार में कोई भी सरकार इस ‘बिरनी के छत्ते’ में हाथ डालने को तैयार नहीं है। मौजूदा मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने 2006 में भूमि सुधार के लिए बंदोपाध्याय आयोग बनाया था। अध्ययन के बाद आयोग ने कई अनुशंसाएं की। लेकिन नितीश बाबू ने यह कहते हुए कि ”बैलेंसवा बिगड़ जाएगा“, आयोग की रिपोर्ट को ठंढे बस्ते में डाल दिया।

लिहाजा, कोशी अंचल के पूर्णिया सहित उत्तरी बिहार के सभी जिलों के आदिवासी आज भी हिंसा से ग्रसित हैं, लेकिन वे भी चुप नहीं बैठे हैं। भले ही बिहार की सरकार और उनका भूमि कानून आदिवासियों का साथ नहीं देते। भले ही बिहारी समाज, उसके मुख्यमंत्री और मीडिया चंदवा-रूपसपुर के शहीदों को नहीं, लक्ष्मीनारायण सुधांशु को महान मानता हो। एक हत्यारे की जयंती मनाता हो। पर आदिवासियों के दिलों में बसा है चंदवा-रूपसपुर। उन्होंने जमीन नहीं छोड़ी है। वे सब आज भी पुरखों की बनाई जमीन जोत-कोड़ रहे हैं। और लड़ रहे हैं।

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