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विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप और योगदान के सौ साल (1921-2021)

देश की विधायी और संसदीय व्यवस्था में आदिवासियों की भागीदारी, हस्तक्षेप और योगदान को आधुनिक भारतीय राजनीति के इतिहास में उपेक्षा की गई है। मुख्य भारतीय भूमि से विधायी व्यवस्था में प्रवेश करने वाले देश के पहले और एकमात्र आदिवासी चाईबासा के दुलु मानकी हैं जो 1921 में गठित बिहार-ओड़िसा लेजिस्लेटिव गर्वनर काउंसिल में सिंहभूम सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से जीत कर विधान परिषद का सदस्य बने थे।
toakhra December 8, 2021 1 min read

AFN Desk

info@adivasifirstnation.in

‘भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप और योगदान के शताब्दी वर्ष (1921-2021)’ पर 26 अक्टूबर 2021 को रांची में एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन हुआ। झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा ने इसे डॉ. रामदयाल मुंडा आदिवासी कल्याण शोध संस्थान, रांची के सहयोग से आयोजित किया था। विधायिका और संसदीय व्यवस्था में आदिवासियों के सौ साल पूरे होने पर भारत में पहली बार आयोजित हुए इस राष्ट्रीय सेमीनार में सामाजिक विज्ञान एवं मानवीकी संकाय, टीआईएसएस, गुवाहाटी (असम) के डीन डॉ. जगन्नाथ अम्बागुड़िया ने बीज वक्तव्य दिया जबकि झारखंड सरकार के आदिवासी कल्याण मंत्री चम्पई सोरेन के विशिष्ट अतिथि के रूप में संबोधित किया। 

झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने सेमीनार की जानकारी देते हुए बताया कि देश की विधायी और संसदीय व्यवस्था में आदिवासियों की भागीदारी, हस्तक्षेप और योगदान को आधुनिक भारतीय राजनीति के इतिहास में उपेक्षा की गई है। मुख्य भारतीय भूमि से विधायी व्यवस्था में प्रवेश करने वाले देश के पहले और एकमात्र आदिवासी चाईबासा के दुलु मानकी हैं। ये 1921 में गठित बिहार-ओड़िसा लेजिस्लेटिव गर्वनर काउंसिल में सिंहभूम सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से जीत कर विधान परिषद का सदस्य बने थे। उनके बाद 1950 तक एक दर्जन से ज्यादा आदिवासी विधान परिषद और फिर 1937 में गठित विधानसभा के सदस्य बने। ठेबले उरांव 1946 में सांसद बनने वाले पहले आदिवासी हैं जो कांग्रेस द्वारा मनोनीत किए गए थे। इन सभी आदिवासी जनप्रतिनिधियों ने आदिवासी जीवन और जल जंगल जमीन से जुड़े सवालों को विधायिका में उठाया। आदिवासी संबंधी नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों को बनवाने और लागू करवाने में असरदार भूमिका निभायी। साथ ही आदिवासियों ने विधायी और संसदीय लोकतंत्र का जनपक्षीय स्वरूप गढ़ने में योगदान किया। जयपाल सिंह मुंडा द्वारा किए गए अवदान के फलस्वरूप संविधान में 5वीं और 6ठी अनुसूचियों को शामिल किया गया व टीएसी और आदिवासी कल्याण मंत्रालय गठित किए गए। लेकिन किसी राजनीतिक इतिहासकार ने भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासियों के इस राजनैतिक हस्तक्षेप और योगदान को शामिल करने की सदाशयता नहीं दिखायी।

विधायी और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासियों के शताब्दी वर्ष पर आयोजित इस सेमीनार के विभिन्न सत्रों को झारखंड के वरिष्ठ साहित्यकार विनोद कुमार, मीडियाकर्मी एवं सामाजिक विश्लेषक सुधीर पाल, टीएसी के पूर्व सदस्य रतन तिर्की, अश्विनी कुमार पंकज, रणेंद्र, चाईबासा के राजनीतिज्ञ सोनाराम देवगम, ‘हो’ साहित्यकार डॉ. दमयंती सिंकु, कोलकाता के प्रख्यात स्कॉलर डॉ. संतोष बेसरा और जम्मू-कश्मीर के प्रख्यात गोजरी साहित्यकार जान मोहम्मद हकीम ने संबोधित किया। सेमीनार के आयोजन का उद्देश्य देश की विधायी और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप व योगदान के शताब्दी वर्ष का राजनीतिक इतिहास सामने लाना और दुलु मानकी जैसे भुला दिए गए आदिवासी जनप्रतिनिधियों को याद करना था।

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Tags: आदिवासी हस्तक्षेप चम्पई सोरेन जगन्नाथ अम्बागुड़िया डॉ. रामदयाल मुंडा आदिवासी कल्याण शोध संस्थान दुलु मानकी भारतीय विधायिका वंदना टेटे संसदीय लोकतंत्र सेमीनार

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