

AK Pankaj
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झारखंड की राजधानी में अवस्थित कांके का रांची पागलखाना इस मई को अपनी स्थापना के 100वें साल में प्रवेश कर चुका है। इसकी स्थापना 17 मई 1918 में प्रथम विश्वयुद्ध के पागल अंग्रेज सैनिकों और एंग्लो-इंडियनों के लिए की गई थी। सुपरिटेंडेंट जे. ई. धनजीभाई की पहल पर 1925 में भारतीय पागलों को भी इसमें जगह मिली। खास चिकित्सा पद्धति और अनेक कारणों से यह एशिया में ही नहीं वरन पूरी दुनिया में अपने ढंग का अनोखा पागल अस्पताल व लंदन युनिवर्सिटी से एफलिएटेड एकमात्र मेंटल कॉलेज रहा है। जहां पागलों की चिकित्सा के साथ-साथ ‘पागल डॉक्टर’ की डिग्री भी मिलती थी। रांची पागलखाना के पागल नाटक करते थे, फुटबॉल, हॉकी खेलते थे, गीत-संगीत का कार्यक्रम देते थे। बाजार में खरीदारी करते थे, पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थिएटर का आनंद लिया करते थे। हिंदी, अंग्रेजी, ओड़िया, बांग्ला आदि भाषाओं में नियमित तौर पर 10 से ज्यादा अखबार पढ़ा करते थे। सबसे खास बात यह कि इस पागलखाने में, जो आदिवासियों के बीच स्थापित था, ब्रिटिश और स्वतंत्र भारत में यहां लंबे अरसे तक एक भी आदिवासी रोगी भरती नहीं हुआ था। बहुतों को यह भी विश्वास नहीं होगा कि यहां के पागल चैम्पियन खिलाड़ी, कमाल के मनोरंजक कलाकार और जबरदस्त पढ़ाकू थे। पॉपुलर गायक-संगीतकार, शिष्ट श्रोता-दर्शक और फिल्मों के गजब के शौकीन थे।
रांची की लोकप्रियता उतनी ही पुरानी है जितना पुराना ब्रिटिश शासन का भारतीय इतिहास है। 28वें राज्य के रूप में इसका अस्तित्व 15 नवंबर 2000 को आया पर इसकी वर्तमान राजधानी रांची 1834 से ब्रिटिश प्रशासन का मुख्य केन्द्र रही है। औपनिवेशिक काल में कोलकाता के बाद अंग्रेजों का सबसे पसंदीदा शहर रांची हुआ करता था। बिहार, बंगाल और उड़ीसा जब संयुक्त प्रांत था और जब बिहार अविभाजित था, तब भी रांची ऑफिशयली दूसरी राजधानी थी। मनोरम प्राकृतिक वातावरण और खुशनुमा मौसम के कारण यह एक आकर्षक ‘हिल स्टेशन’ था जिसकी लोकप्रियता लंदन तक व्याप्त थी। सिर्फ इसलिए नहीं कि यह एक अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य, कोयला-लोहा जैसे संसाधनों और आदिवासी संस्कृति वाला एक विशिष्ट प्रदेश है। बल्कि इसलिए भी कि रांची में एक विश्वप्रसिद्ध पागलखाना है। राजधानी से मात्र 12 किलोमीटर की दूरी पर कांके में अवस्थित ‘केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान’ सौ साल पुराना और दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पागलखानों व मनोचिकित्सकीय संस्थानों में से एक है।
भारत में मनोरोगियों और पागलखानों का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना कि यहां की सभ्यता और संस्कृति। बौद्धकाल (400-200 ई.पू.) के साहित्य और अथर्ववेद, यजुर्वेद, चरक व सुश्रुत संहिता में मनोरोगियों का वर्णन आया है। ‘मेडिसीनः एन इलस्ट्रेटेड हिस्ट्री’ (1997) के अनुसार अशोक के समय में मनोरोगियों के लिए अलग से अस्पताल हुआ करते थे। परंतु मोनियर-विलियम्स के अनुसार पागल का स्पष्ट उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण में हुआ है-‘पारक्षणम, तस्मात गलति विच्युतो भवति’। पारक्षणम् = पा का अर्थ है रक्षा करना। तस्मात् गलति (विच्युतो भवति) का मतलब ‘उससे विच्युत होता है’ अर्थात् रक्षण कार्य करने में जो सक्षम नहीं होता है। इसके बावजूद मुगल काल तक हमें भारत में मनोरोगियों और उनके ईलाज के लिए स्थापित चिकित्सकीय संस्थानों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती। 1222 ई. में नजबुद्दीन उम्माद नामक एक मनोचिकित्सक का जिक्र जरूर आता है। यह एक युनानी पद्धति का चिकित्सक था जिसने सात तरह के मनोविकारों का विस्तार से वर्णन किया है। इसके बाद मुहम्मद खिलजी (1436-1469) के दौर में हम पागलों के एक और डॉक्टर मौलाना फजुलुर हाकिम, जो मध्यप्रदेश के धार के पागलखाने में कार्यरत था, का विवरण पाते हैं। अविभाजित भारत के पंजाब और गुजरात शहर में शाहदौला (1581-1675) नाम के एक सूफी को भी इतिहासकार मानवीय चिकित्सक होने का दर्जा देते हैं। जो विकार से ग्रसित और मनोरोगी बच्चों को पालते व देखभाल करते थे। इन बच्चों को ‘शाहदौला के चूहे’ कहा जाता था।
वास्तव में आधुनिक पागलखाने की संकल्पना पूरी तरह से ब्रिटिश उपनिवेश और युद्ध की देन है। 1745 में मनोविक्षिप्त सैनिकों के लिए पहला पागलखाना मुंबई में और 42 साल बाद 1787 में कोलकाता में खोला गया। 1793 में एक प्राईवेट मनोचिकित्सालय मद्रास में स्थापित हुआ। लेकिन पहला सरकारी पागलखाना 17 अप्रैल 1795 को बिहार के मुंगेर में बनाया गया। श्यामलदास चक्रवर्ती रोड पर स्थित इस मनोचिकित्सालय को लोग ‘पागल घर’ कहते थे। बिहार का दूसरा पागलखाना 1821 में पटना में खुला। 1855 तक मुंबई, कोलकाता और चेन्नई सहित कुछ अन्य बड़े नगरों को छोड़कर पागलखानों की स्थिति में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई। लेकिन 1855 के जनव्यापी संताल हूल और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद बड़ा बदलाव आया। 1858 में अंग्रेजों ने पहला ‘पागलपन अधिनियम’ (एक्ट नं. 36) बनाया जो 1888 में गठित एक कमिटी के द्वारा पुनर्संशोधित की गई। इसी के बाद ब्रिटिश भारत के अनेक शहरों में नए-नए पागलखाने बने। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पागल सैनिकों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई और सही मायने में पागलखाने मनोचिकित्सालय बनने की ओर अग्रसर हुए। 1912 में ‘भारतीय पागलपन अधिनियम’ पारित हुआ। इसके तहत अंग्रेज सैनिकों के लिए पहला मनोरोगी चिकित्सालय बंगाल के भवानीपुर में स्थापित किया गया। परंतु 1918 में इसे बंद कर रांची के कांके में नया पागलखाना खोला गया जो अगले कुछ ही वर्षों के भीतर अपनी खास चिकित्सा पद्धति के कारण पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हो गया। भारतीय मनोचिकित्सा के इतिहास में रांची पागलखाना ने अनेक कीर्तिमान स्थापित किए और पागलों की चिकित्सा पद्धति, सामाजिक देख-रेख तथा उनके मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने में अग्रणी भूमिका निभायी, युगांतकारी मेडिकल ट्रेंड सेट किए। रांची पगालखाना के पहले अधीक्षक कर्नल ओवेन एआर बर्कले-हिल की नई चिकित्सा तकनीक और मानवीय दृष्टि के कारण ही आगे चलकर सरकार की नीति में परिवर्तन आया और 1920 से सरकारी तौर पर पागलखानों को अस्पताल का दर्जा मिला।
रांची पागलखाना मनोचिकित्सा के क्षेत्र में एक नया प्रयोग था। यहां पागलों का ईलाज ‘पागल’ की तरह नहीं बल्कि सामान्य रोगी की तरह किया जाता था। इसके लिए इस संस्थान ने अनेक ऐसी चिकित्सकीय पद्धतियों का इस्तेमाल किया जो पहले नहीं की जाती थीं। साथ ही मनोरोगियों को पूरा पारिवारिक और सामाजिक माहौल दिया गया। खेल, संगीत, कला, साहित्य, नाटक-रंगमंच जैसी अनेक रचनात्मक गतिविधियों को उपचार का माध्यम बनाया गया। उन्हें मनोरंजन व सामान्य दिनचर्या के ज्यादा से ज्याद अवसर उपलब्ध कराए गए। मानसिक रोगियों का पुनर्वास की संकल्पना यहीं पहली बार की गई। यह ध्यान देने योग्य है कि अन्य मानसिक अस्पतालों के विपरीत, रांची पागलखाना कभी भी मनोरोगियों का कारागार नहीं रहा। यहां पागल सींखचों, जंजीरों, रस्सियों आदि में कैद कर के नहीं रखे जाते थे। यह मानसिक रूप से बीमार रोगियों के प्रबंधन के लिए एक व्यापक मनो-सामाजिक दृष्टिकोण के साथ हमेशा एक खुला अस्पताल रहा है।
इसी का परिणाम है कि ‘पागल’ और ‘मनोरोगी’ माने जाने वाले यहां के पागल सभी खेलों में उस्ताद थे। रांची मनोचिकित्सा संस्थान के 1930 से 1940 तक की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि यहां के पागल खिलाड़ियों ने 1925-29 के बीच रांची के सभी खेल क्लबों को हराया था। सिर्फ हराया ही नहीं बल्कि फुटबाल और हॉकी के सारे टूर्नामेंट मैच जीत कर वे चैम्पियन बन गए थे। अंग्रेजी सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं में 10 से अधिक अखबार इस पागलखाने में नियमित रूप से आते थे। ब्रिटिश भारत में यह अकेला पागलखाना था जिसमें एक बहुत बढ़िया और बड़ी लायब्रेरी थी जहां पढ़ाकू पागल दिन-रात विश्वसाहित्य में सर खपाए रहते। 1940 में सिर्फ एक साल के दौरान हिंदी, अंग्रेजी और बांग्ला की 58 फिल्में देखी थीं यहां के पागलों ने। संस्थान के परिसर में इसका अपना सिनेमा प्रोजेक्टर, प्रशिक्षित ऑपरेटर और सिनेमा हॉल था। 29 मार्च 1933 को मुंबई से खरीदकर लाए गए प्रोजेक्टर से पहली बार फिल्म दिखाई गई थी। यह भी उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश भारत में यह अकेला मनोचिकित्सकीय मेडिकल शिक्षण संस्थान था जो लंदन विश्वविद्यालय से एफलिएटेड था। 1922 में इस संस्थान द्वारा ‘डिप्लोमा इन साइकोलोजिकल मेडिसिन’ में पोस्टग्रेजुएट डिग्री दी जाती थी। तब भारत के किसी विश्वविद्यालय के किसी भी विषय में पोस्टग्रेजुएट की पढ़ाई नहीं होती थी। डा. एलपी वर्मा जो भारत के पहले ‘पागल डॉक्टर’ (पोस्टग्रेजुएट मनोचिकित्सक) हैं, वे इसी संस्थान के प्रोडक्ट हैं। जब 1925 में कैप्टन जेई धनजीभाई इसके सुपरिटेंडेंट बने तब इसी पागलखाना में पहली बार भारतीय मनोरोगियों को प्रवेश मिला और महिला मनोरोगियों के लिए अलग से वार्ड बनाए गए।
गौरतलब यह भी है कि मानसिक रूप से बीमार लोगों की देखभाल के लिए बनाए गए पूर्व कानून जैसे भारतीय पागलखाना अधिनियम, 1858 और भारतीय पागलपन अधिनियम, 1912 में मानवाधिकार के पहलू की उपेक्षा की गई थी और इनमें केवल पागलखाने में भर्ती मरीजों पर ही विचार किया गया था। आजादी मिलने के बाद इस संबंध में पहला कानून बनाने में 31 वर्ष लग गए और उसके 9 वर्ष के उपरांत मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 अस्तित्व में आया। 1987 का अधिनियम उस ड्राफ्ट पर आधारित था जिसे 1949 में रांची मनोचिकित्सा संस्थान के डा. डेविस ने 1949 में लिखा था। परंतु इस अधिनियम को कभी भी किसी राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेश में लागू नहीं किया गया।
दो साल पहले लगभग तीन दशक बाद 10 अक्टूबर 2014 को देश की पहली मानसिक स्वास्थ्य नीति की घोषणा केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने की है। इसका आरंभ करते हुए केंद्रीय स्वस्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्द्धन ने कहा- ‘यह अवसर मानसिक अस्वस्थता और उससे संबंधित भ्रामक अवधारणों पर जागरुकता बढ़ाने का है। हम एक ऐसा राष्ट्र चाहते हैं जो मानसिक रोगियों के मानवाधिकारों का समर्थन करता हो। साथ ही, यह अवसर मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्तियों पर दोष मढ़ने के खिलाफ जागरुकता पैदा करने तथा अवसाद, सीजोफ्रेनिया, बाई पोलर सिंड्रोम आदि से पीड़ित व्यक्तियों के लक्षणों को स्पष्ट करने और उपचारात्मक सुविधाएं प्रदान करने का है’। डॉ हर्षवर्धन ने अपने वक्तव्य में माना कि ‘मानसिक अस्वस्थता और गरीबी के बीच परस्पर संबंध स्पष्ट होता है, जिसके मुताबिक मानसिक रूप से अक्षम लोग सबसे निचले स्तर पर हैं। यह हमें चेतावनी देता है कि यह एक स्वास्थ्य संकट बन सकता है जिसका समाज पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।’ नई मानसिक स्वास्थ्य नीति के संदर्भ में उन्होंने कहा, ‘मैंने यह सुनिश्चित किया है कि यह हमारे मूल्य प्रणाली का अभिन्न हिस्सा बन जाए जो भागीदारीपूर्ण और मानवाधिकारों के पैमाने पर खरा उतरे। हमने इस बात का भी ध्यान रखा है कि यह सेवा गरीब और उपेक्षित वर्ग के लोगों को भी मिले।’ ध्यान देनेवाली बात है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2020 तक भारत की लगभग 20 प्रतिशत जनसंख्या किसी न किसी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता से पीड़ित होगी। इस समय जबकि देश में केवल 3500 मनोचिकित्सक हैं। अतः सरकार को अगले दशक में इस अंतराल को काफी हद तक कम करने की समस्या से जूझना होगा। बदलते राजनीतिक और आर्थिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में भारतीय समाज मानसिक तौर पर अनेक तरह के संकटों से गुजर रहा है। इससे निदान पाने में रांची का केन्द्रीय मनोचिकित्सा संस्थान अपने गौरवशाली इतिहास और अनुभव से प्रभावकारी भूमिका निभा सकता है। भारत और दुनिया के मनोचिकित्सा जगत में इसने हमेशा अपनी विशिष्टता को साबित किया है। इसलिए यह जरूरी है कि शतवार्षिकी पर इसके अवदान का समुचित मूल्यांकन हो और मानव तथा तकनीकी संसाधनों से और लैस किया जाए।
पहली बार साप्ताहिक पत्रिका ‘आदिवासी’, अंक-107, जून 2017 में प्रकाशित
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