AK Pankaj
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देश में अंगरेजी शासन के विरूद्ध हुई लड़ाई में झारखंड की आदिवासी-मूलवासी जनता का योगदान सिर्फ झारखंड तक ही नहीं सिमटा हुआ है। औपनिवेशिक काल में वे जहां-जहां ले जाए गए और स्वयं की इच्छा से भी गए, वहां-वहां उन्होंने आबुआ राज का परचम लहराया और ब्रिटिश शासन को देश छोड़ने पर मजबूर किया। इस इतिहास के अनुसार अबुआ राज का आंदोलन झारखंड के पठारों से लेकर उत्तर-पूर्व के असम की पहाड़ियों और घाटियों तक पसरा हुआ है। असम के चाय बागानों में हुई आजादी की लड़ाई में जो झारखंडी शामिल थे, जिन्होंने उन लड़ाइयों की अगुवाई की और जो ब्रिटिश शासन-प्रशासन से लड़ते हुए शहीद हो गए, उनके बारे में हमें आज बहुत कम जानकारी है। वे सब के सब झारखंडी थे जिनको वर्षों पहले चाय की खेती के लिए अंगरेज वहां जबरदस्ती ले गए थे। फुलबारी चाय बागान के ख्रिस्तसन मुंडा एक ऐसे ही आदिवासी योद्धा थे, जिन्हें 1916 में अंगरेजों ने फांसी दी थी। यह साल ख्रिस्तसन मुंडा की शहादत की शतवार्षिकी का है। ख्रीस्तसन मुंडा कौन थे, कहां के रहने वाले थे, उनकी उम्र क्या थी आदि के बारे में कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। तत्कालीन ब्रिटिश दस्तावेजों में भी उनका जिक्र नहीं के बराबर है। एकमात्र दारांग (असम) के डिप्टी कमिशनर द्वारा ‘लेबर इनक्वायरी कमिटि’ को दी गई रिपोर्ट से ही उनका आंशिक परिचय मिलता है। जिसमें ख्रिस्तसन न मुंडा को असम के चाय बागानों में 1915 में और इसके पूर्व हुए विद्रोहों को भड़काने तथा उसका नेतृत्व करने के लिए जिम्मेवार ठहराया गया है। रिपोर्ट में उनका संबंध 1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए उलगुलान से भी जोड़ा गया है।
1228 में अहोम लोगों के आने के बाद असम में अहोम वंश की स्थापना हुई और उन्होंने लगभग छह सौ वर्षों तक असम पर शासन किया। तत्कालीन शासक को हरा कर 4 फरवरी 1826 को अंग्रेजों ने यांदबू संधि के जरिए असम (वर्तमान तिनसुकिया तथा डिब्रुगढ़) को अपने क्षेत्राधिकार में ले लिया। जल्दी ही उन्होंने यहां चाय की खेती शुरू की और इसके लिए मजदूर बना कर लोगों को जबरन लाने का काम आरंभ हुआ। जो मजदूर शुरुआत में लाए गए उनको पता नहीं था की किस पौधे की बुआई के लिए उन्हें लाया गया है। चाय के पौधे और उसकी खेती से वे अनजान थे। वे चाय के पौधे को जंगली पौधा समझ रहे थे और अंग्रेजों द्वारा इस पौधे को महत्व देने को उनका पागलपन समझ रहे थे। मजदूरों ने इस पौधे का नाम ‘चा’ दिया। इस तरह असम का पहला चाय क्षेत्रा ‘चबुआ’ के रूप में अस्तित्व में आया। ‘चबुआ’ यानी ‘चा’ जहां ‘बुआ’ (बोना) जाता था। 1840 में असम टी कंपनी की स्थापना हुई और इस क्षेत्रा में चाय का वाणिज्यिक उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। 1842 में असम टी कंपनी ने भारी संख्या में आदिवासी मजदूरों को लाने के लिए गुवाहाटी और कोलकाता के बीच स्टीमर चालन शुरू किया। 1889 में रेल चलने लगी और इस दौरान चाय बागानों में लाखों आदिवासी चाय बागान ले जाए गए।
1841 में पहली बार झारखंड से आदिवासियों को चाय की खेती के लिए असम ले जाया गया। लेकिन यह पहला जत्था असम में जीवित नहीं रह सका और प्राकृतिक आपदाओं एवं बीमारियों के कारण मौत के मुंह में समा गया। दूसरी खेप 1858-59 में असम पहुंची जिसमें 400 आदिवासी थे। यह संख्या 1863 में बढ़कर 84,915 हो गई। जैसे-जैसे चाय बागानों की संख्या में वृद्धि होती चली गई वैसे-वैसे ही झारखंड से ले जाने वाले आदिवासियों और सदान मजदूरों की संख्या में भी बढ़ोतरी होती चली गई। इन मजदूरों को दो तरीकों से ले जाया जाता था। ‘अरकाटी’ पद्धति से और ‘सरदारी’ पद्धति से। अरकाटी उन्हें कहा जाता था, जो आदिवासियों को बहला-फुसला कर, जबरदस्ती या फिर अपहरण कर ले जाते थे, तो सरदार वे आदिवासी मजदूर थे जिन्हें चाय बागान के मालिक खुद उनके गांवों में भेजकर उनके जरिए मजदूर मंगवाया करते थे। बेग और डनलप नामक ब्रिटिश कंपनियां उस समय चाय बागान के मालिकों से प्रति पुरुष मजदूर 3 रु. और औरतों के लिए 1 रु. दलाली वसूलती थी। लेकिन आगे चलकर जब मजदूरों की किल्लत होने लगी, मजदूर आव्रजन संबंधी ब्रिटिश कानून थोड़े सख्त हुए तो जॉन हेनरी लावटन के गिरोह ने पुरुषों के लिए 30 रु. और स्त्रिायों के लिए 25 रु. तक की दलाली वसूली। एक तीसरा वर्ग ईसाई मिशनरियों का भी था जिसने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए बड़ी संख्या में आदिवासियों को असम भेजा। 1900 तक असम के चाय बागानों में आदिवासी मजदूरों की संख्या लाखों में पहुंच गई थी।
चाय बागानों में बेहतर मजदूरी और अच्छी जिंदगी का जो सपना दिखाया जाता था, वह वहां पहुंचते ही ‘दूर का ढोल’ बन जाता था। बागानों में उनका जीवन पूरी तरह से मालिकों के रहम पर निर्भर होता था। कुली लाइनों के छोटे-छोटे झोपड़ियों में उन्हें जानवरों की तरह रखा जाता और उनसे हाड़तोड़ काम लिया जाता। उनकी जिंदगी वहां बंधुआ से भी गई गुजरी हो जाती और मालिक उनका उपयोग निजी संपत्ति की तरह करता। औरतों की हालत इस मामले में पुरुषों से बहुत बदतर थी क्योंकि श्रम के अतिरिक्त चाय बागान के गोरे मालिक उनकी देह का भी मनमाना उपयोग करते थे।
1900 के आते-आते चाय बागान के मालिकों और आदिवासी मजदूरों के बीच तनाव बढ़ने लगा। यह तनाव बिरसा मुंडा के आंदोलन उलगुलान और जतरा भगत के टाना आंदोलन की हवा पाते ही आग की तरह भड़क उठी। 1905 से लेकर 1940 तक चाय बागानों में विरोध प्रदर्शन हुए, हड़तालें हुई, ब्रिटिश मालिकों और उनके कारिंदों पर हमले हुए, चाय बागान में लगने वाले बाजारों पर आक्रमण हुए और अत्याचारी-लंपटों पर जानलेवा कार्रवाई की गई। इतिहासकार अमलेन्दु गुहा ने अपनी पुस्तक ‘प्लांटर राज टू स्वराज’ में इन संघर्षों का प्रामाणिक ब्योरा दिया है। उनकी टिप्पणी है कि राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने चाय बागान के आदिवासी मजदूरों द्वारा किए गए स्वराज के इन आंदोलनों को ‘राष्ट्रीय आंदोलन’ में समेट कर उनके योगदान को इतिहास से बाहर कर दिया है। सुप्रसिद्ध लोकसाहित्य संग्राहक और अध्येता देवेन्द्र सत्यार्थी ने राष्ट्रवादियों की इस मंशा का विवरण अपनी कहानी ‘चाय का रंग’ में बहुत ही रोचक तरीके से किया है।
आदिवासी लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता विल्फ्रेड तोपनो ने अपने लेख ‘स्ट्रगल्स ऑफ आदिवासी ऑफ असम’, जो कि इस लेख का मुख्य आधार है, में बताया है कि चाय बागानों संगठित प्रतिरोध का पहला जबरदस्त उभार 1915 में हुआ। इस संघर्ष के नायक ख्रिस्तसन मुंडा थे। ख्रीस्तसन मुंडा फुलबारी चाय बागान के लुथेरान चर्च के पास्टर थे। वे संभवतः खूंटी के किसी गांव के थे जो असम के चाय बागानों में ईसाइयत के प्रचार के लिए गए थे।
दारांग (असम) के डिप्टी कमिशनर ने ख्रिस्तसन मुंडा के बारे में ‘लेबर इनक्वायरी कमिटि’ को लिखा था – ‘इसमें कोई संदेह नहीं कि विद्रोह को भड़काने में लुथरन पादरियों की शिक्षा का प्रभाव किसी न किसी रूप में रहा है। चाय बागान के अधिकांश आदिवासी मजदूर अनपढ़ हैं और वे धार्मिक गतिविधियों के लिए अपने ही समुदाय के ‘पादरियों’ व ‘पंडितों’ पर निर्भर होते हैं। दंगा होने के कुछ दिन पहले ही उनकी समुदाय का प्रधान पादरी ‘ख्रिस्तसन’, अपने देश (खूंटी) गया था और दंगा होने के पहले लौट आया था। उसके लौटने के बाद ही मजदूरों में भयानक असंतोष की वृद्धि देखी गई जो आगे चलकर दंगे का कारण बना। ख्रिस्तसन मुंडा ही देश में चल रहे आंदोलन (उलगुलान) और चाय बागान के मुंडा आदिवासियों की बीच का कड़ी है। उसने देश में चल रहे आंदोलन के लिए यहां के आदिवासी मजदूरों से चंदा वसूल कर उनको आर्थिक मदद पहुंचाने का भी काम किया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि चाय बागान में मजदूरों को संगठित करने और उनको भड़काने में ख्रिस्तसन मुंडा और उसके सहयोगियों की बड़ी भूमिका है।’
डिप्टी कमिशनर की यह रिपोर्ट बताती है कि ख्रीस्तसन मुंडा धरती आबा बिरसा मुंडा की अगुआई में हुए उलगुलान से सक्रिय रूप से जुड़े थे और असम के चाय बागानों से मुंडा योद्धाओं को हर तरह की मदद पहुंचाने का काम रहे थे। उन्होंने 1915 में चाय बागान के मजदूरों को बड़े पैमाने पर संगठित कर ‘स्वराज’ के लिए संघर्ष की शुरुआत की। इस संघर्ष का निशाना चाय बागान के अत्याचारी मालिक, उनके मैनेजर और जमादार तो बने ही, चाय बागानों में लगने वाले वे हाट-बाजार भी बने, जो आदिवासियों के महाजनी शोषण का केन्द्र थे।
चाय बागान में हाट-बाजार की शुरुआत अंगरेजों ने करवायी थी। ये हाट-बाजार आदिवासी मजदूरों के शोषण का केन्द्र थे जहां महाजनों के चंगुल में आदिवासी अपना थोड़ा-बहुत बचाया हुआ पैसा भी गंवा देते थे। इस तरह चाय बागान के मालिकों का गुलाम होने के साथ-साथ आदिवासी मजदूर महाजनों की गुलामी के लिए भी मजबूर हो जाते थे। ख्रिस्तसन मुंडा और उनके साथियों ने चाय बागान के मालिकों, मैनेजरों के साथ-साथ हाट-बाजारों और महाजनों को भी अपना निशाना बनाया। सोनाजुली, हेलेम, कछारीगांव, काथोनी आदि चाय बागानों में, जहां लुथरन मुंडा आदिवासियों की संख्या ज्यादा थी, आंदोलन से सबसे अधिक प्रभावित थे। इन चाय बागानों में हड़तालें हुई, विरोध प्रदर्शन हुए और हाट-बाजारों को ध्वस्त किया गया। इस आंदोलन में मुंडा आदिवासियों के साथ चाय बागान ले जाए गए खड़िया, उरांव, संताल, महतो, बड़ाईक, घासी, तांती, कर्मकार-लुहार आदि समुदाय तो शामिल थे ही, मुस्लिम और स्थानीय किसानों ने भी भाग लिया था। इन सब ‘अपराधों’ के लिए 1916 में फुलबारी चाय बागान में अंग्रेजों ने ख्रीस्तसन मुंडा को सरेआम फांसी पर लटका दिया था। ख्रिस्तसन उलगुलान के समर्थक ही नहीं बल्कि उसके एक मजबूत लड़ाका थे। उलगुलान की चेतना ने ही उन्हें असम के चाय बागानों में आदिवासियों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष की चेतना दी। उन्होंने ब्रिटिश शासन और चर्च की परवाह नहीं करते हुए असम के चाय बागानों में जबरन ले जाए गए आदिवासियों को दिसुम (झारखंड) से टूट गए संबंधों को जोड़ा। पुरखा लड़ाइयों की ऐतिहासिक चेतना से उनके भय को दूर किया और आबुआ राज यानी स्वराज प्राप्ति के लिए प्रेरित किया। इस झारखंडी योद्धा को उनकी शहादत की सौंवीं वर्षगांठ पर शत-शत नमन, हूल जोहार।
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