Skip to content
March 23, 2023
  • Twitter
  • Facebook
  • Instagram
  • Youtube
Adivasi First Nation

Adivasi First Nation

Untold Indigenous Adivasi News and Views

Primary Menu
  • Home
  • News
    • Political
    • राजनीतिक
  • History
    • इतिहास
  • Literature
    • साहित्य
    • किताब
    • Books
    • भाषा
    • Language
  • Culture
    • संस्कृति
    • समाज
    • Society
    • कला
    • Art
  • Cinema
    • सिनेमा
  • Sports
    • खेल
  • Adivasidom
    • आदिवासियत
Live
  • Home
  • हिंदी
  • इतिहास
  • प्रेम और साहस से भरी उलगुलान की औरतें
  • इतिहास

प्रेम और साहस से भरी उलगुलान की औरतें

समाज के निर्माण, सृजन और संघर्ष में बराबर की हिस्सेदारी करने वाली महिलाओं को लिखित इतिहास में उचित सम्मान नहीं मिला। बिरसा उलगुलान में शामिल और लड़ाई के दौरान शहीद हुई अधिकांश महिलाओं के नाम आज भी गुमनाम हैं।
toakhra December 8, 2021 1 min read

Vandna Tete

vandnatete@gmail.com

झारखंड के समाज में महिलाओं की स्थिति हमेशा हर स्तर पर बराबर की भागीदारी वाली रही है। बहुत पुराने समय में भी जब समाज पूर्ण रूप से खेती पर निर्भर नहीं हुआ था महिलाएं शिकार करने और पेड़ों से फल-फूल व मधु उतारने जैसा जोखिम भरा काम किया करती थीं। गांव-समाज पर बाहरी हमलों के खिलाफ होने वाली लड़ाइयों में पुरुषों के समान ही भूमिका निभाया करती थीं। 1832 में वीर बुधु भगत के नेतृत्व में हुआ सिंङभूम के ‘हो’ लोगों का विद्रोह, 1855 का संताल विद्रोह, 1880 का तेलेंगा खड़िया विद्रोह और 1914 में हुए जतरा टाना आंदोलन में महिलाओं की वीरतापूर्ण हिस्सेदारी रही है। 1760 में पहाड़िया आदिवासियों ने बाबा तिलका उर्फ जबरा पहाड़िया के जुझारू अगुवाई में लड़ाई लड़ी। इसमें भी पहाड़िया औरतों ने जम कर ब्रिटिश राज से लोहा लिया था। इसी तरह से अंग्रेजी राज के विरूद्ध 1895-1900 में हुए बिरसा उलगुलान में भी महिलाओं की जबरस्त भूमिका थी। औपनिवेशिक शासन के 200 वर्षों में झारखंड के आदिवासी हों या सदान सभी ने ऐतिहासिक संघर्ष किया। इस स्वतंत्रता संघर्ष में समाज के दोनों मुख्य घटकों – स्त्री और पुरुष – ने साथ-साथ सुख-दुख जीया। साथ-साथ संघर्ष किया और साथ-साथ ही मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया। यह चिंतनीय है कि समाज के निर्माण, सृजन और संघर्ष में बराबर की हिस्सेदारी करने वाली महिलाओं को लिखित इतिहास में उचित सम्मान नहीं मिला। बिरसा उलगुलान में शामिल और लड़ाई के दौरान शहीद हुई अधिकांश महिलाओं के नाम आज भी गुमनाम हैं।

उलगुलान के दौर में दो तरह की महिलाएं हैं। एक तो वे जो निजी तौर पर बिरसा के जीवन में आईं और दूसरी वैसी महिलाएं हैं जिन्होंने अपने-अपने परिवार और समाज के साथ उलगुलान युद्ध में भाग लिया। बिरसा के साथ निजी तौर पर जुड़ने वाली महिलाएं भी आईं तो प्रेम में पर वे भी बिरसा के साथ हर क्षण उलगुलान की गतिविधियों में पूरी तरह से भागीदार रहीं। प्रस्तुत लेख में हम उलगुलान में शामिल इन दोनों तरह की स्त्रियों के बारे में जानने का प्रयास करेंगे। यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि उलगुलान संबंधी अध्ययनों में अक्सर लड़ाकू महिलाओं का ही जिक्र होता है और उन महिलाओं को, जो प्रेम के कारण बिरसा के साथ जीवन बिताने का सपना लेकर आई थीं, भुला दिया जाता है।

बिरसा ने जब दिसुम (मातृभूमि) की रक्षार्थ स्वयं को ‘धरती आबा’ घोषित करते हुए मुंडा लोगों को आजादी के लिए संगठित होने का आह्वान किया तब उनकी उम्र मात्र 20 वर्ष की थी। कुमार सुरेश सिंह ने अपनी पुस्तक ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में लिखा है – ‘1894 में बिरसा बढ़कर एक बलिष्ठ और सुंदर युवक बन चुका था। वह पांच फुट और चार इंच लंबा था। वह देखने-सुनने में बहुत ज्यादा आकर्षक ओर अच्छे नाक-नक्श वाला था, उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में अजीब चमक थी, वह बुद्धिमान था।’ डॉ. सिंह ने उस उम्र में बिरसा के साथ निजी तौर पर जुड़ने वाली अनेक स्त्रियों की चर्चा की है। इनमें एक स्त्री उसकी मंगेतर थी। यह रिश्ता परिवार ने तय किया था लेकिन जब वे जेल से लौटे तो उसे अपने प्रति वफादार नहीं पाकर उन्होंने उसके साथ संबंध आगे नहीं बढ़ाया। वह सिंङभूम के संकरा गांव की रहने वाली थी। दूसरी स्त्री मतियस मुंडा की बहन थी। जेल से छूटने पर जिन दो औरतों ने उसके साथ रहने की इच्छा जाहिर की थी, उसमें एक तो कोएंसर के मथुरा मुंडा की बेटी और दूसरी जिउरी के जग्गा मुंडा की स्त्री थी। एक अन्य महिला बुरुडीह की थी जिसे बिरसा ने अपना साथ और आश्रय दिया था। गिरफ्तारी के समय में जो दो औरतें बिरसा के साथ थीं उनमें से एक थी साली। साली बुरुडीह की थी। दूसरी स्त्री सुंगी मुंडा की बेटी थी। इसके साथ ही 1900 में डोम्बारी और सईल रकब पर हुए संघर्ष के बाद एक और स्त्री को अंग्रेजी पुलिस ढूंढ रही थी। इसके बारे में कहा जाता है कि वह बुधु मुंडा की बेटी थी जिससे लड़ाई शुरू होने से तीन महीने पहले ही बिरसा का विवाह हुआ था।

उपरोक्त विवरणों से पता चलता है कि बिरसा के निजी जीवन से कम से कम 8 महिलाएं सीधे तौर पर जुड़ी थीं। उसके सुंदर व्यक्तित्व और बुद्धिमता के कारण सहज ही लोग उसके आकर्षण में बंध जाते थे। कुमार सुरेश ने अपनी शोधपरक पुस्तक में बताया है कि बिरसा बांसुरी बजाने में बहुत प्रवीण थे। कई लड़कियां तो शुरुआती दिनों में सिर्फ उनकी बांसुरी सुनकर उससे प्रेम निवेदन करने लगती थी। इसीलिए बाद में बिरसा ने बांसुरी बजाना ही छोड़ दिया। डॉ. सिंह के अनुसार उपरोक्त सात महिलाओं के अतिरिक्त ‘कुछ और औरतों से भी बिरसा के संबंधें की चर्चा मिलती है।’ इस संबंध में एक दिलचस्प प्रसंग का उल्लेख डॉ. सिंह ने किया है। वे लिखते हैं, ‘चलकद की एक औरत तो उससे बुरी तरह से प्रेम करने लगी। एक दिन वह अपने बच्चे को अपनी पीठ से बांधे एक पेड़ पर चढ़ गई और लगी गाना गाने। दूसरे दिन सुबह वह पेड़ से उतरी, बिरसा के करीब आई और उससे बोली कि उसके दुश्मन आस-पास छिपे हुए थे। बिरसा ने उसे झिड़क दिया। वह इस उपेक्षा से पगला गई, नोंच-नोंचकर घास खाने लगी और उसकी निर्दयता की कहानी जोर-जोर से सुनाने लगी।’

बिरसा के सजीले सम्मोहक व्यक्तित्व, असाधारण बुद्धिमता भरे उपदेशों और अकाल-दुर्भिक्ष तथा महामारियों-बीमारियों के समय उसके द्वारा किये गए सामाजिक कार्यों के कारण बड़ी संख्या में लोग उसके साथ हो गए। समूचे मुंडा इलाके से स्त्री और पुरुष उसका साथ पाने और देने के लिए चलकद पहुंचने लगे। यह ध्यान देने की बात है कि बिरसा उलगुलान सिर्फ मुंडा लोगों तक ही सीमित नहीं था जैसा कि हमें बताया जाता है। डॉ. सिंह ने अपने अध्ययन में जोर देकर इस बात को लिखा है कि बिरसा का प्रभाव सभी तरह के लोगों, जातियों और समुदायों पर पड़ा था। चाहे वे आदिवासी हों, हिंदू हों, ईसाई हों या कि मुसलमान हों। वे लिखते हैं, ‘बिरसा का प्रभाव सभी जातियों और जनजातियों पर था। क्या बनिया, क्या अन्य हिंदू जातियां और क्या मुसलमान, सभी नए धार्मिक सूर्य की ओर उमड़ते चले आ रहे थे। सभी रास्तों का लक्ष्य चलकद ही था।’

आगे चलकर जैसे-जैसे उलगुलान का सांगठनिक विकास होता गया बिरसा आंदोलन के राजनीतिक लक्ष्य भी साफ होते चले गए। शुरुआत में बिरसा का उद्देश्य सिर्फ धार्मिक नवजागरण था। लेकिन 1895 के अगस्त तक उसमें राजनीतिक उद्देश्य भी जुड़ गया। इस तरह अब बिरसा उलगुलान पूरी तरह से एक सांस्कृतिक आंदोलन हो गया जिसका लक्ष्य बहुआयामी था। धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक। कुमार सुरेश सिंह के शब्दों में – ‘जहां तक विद्रोह के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं का प्रश्न है, वे अब सुधारवादी नहीं रहे बल्कि उनका उद्देश्य प्राचीन मूल्यों को पुनरुज्जीवित करना हो गया। साथ ही सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू राजनीतिक आंदोलन के साथ धनिष्ट रूप से संबद्ध हो गए।’ फिर आगे लिखते हैं, ‘बिरसा केवल चांदनी रात में बैठकें और विभिन्न पहाड़ों की चोटियों पर निर्दोष-से नृत्य-गानों का ही आयोजन नहीं करता था, बल्कि उसकी ओर से विभिन्न कार्रवाइयों के लिए व्यापक और सुनिश्चित योजना का ताना-बाना बुना गया था।’

हम पाते हैं कि उलगुलान के इस दौर तक आते-आते बिरसा के निर्देशानुसार महिलाओं ने हर स्तर पर अनेक जिम्मेदारियों को दक्षतापूर्वक सम्हाल लिया था। वे डोम्बारी पहाड़ पर, जो कि चलकद में बिरसा की गिरफ्तारी के बाद उलगुलान का नया ठिकाना बना था, रसद-पानी, भोजन, सुरक्षा, पड़ाव की देख-रेख, सैन्य अभ्यास आदि सभी कार्यों के व्यवस्थापन और संचालन में संलग्न थीं। सबसे महत्वपूर्ण था बिरसा की रक्षा का भार। चूंकि बिरसा को चलकद में बहुत ही छलपूर्वक तरीके से गिरफ्तार किया गया था इसलिए उनके अनुयायी अब पहले की अपेक्षा ज्यादा सजग थे। उनको संदेह था कि बिरसा यदि दोबारा पकड़े गए तो उन्हें अंग्रेज लोग मार डालेंगे। इसी कारण वे नहीं चाहते थे कि बिरसा फिर से गिरफ्तार कर लिए जाएं। इसके लिए बिरसा की कड़ी सुरक्षा जरूरी थी। और काफी सोच-विचार के बाद बिरसा की सुरक्षा का भार महिलाओं को सौंपा गया। इस बारे में अनेक इतिहासकारों ने लिखा है कि बिरसा की अंगरक्षक दो महिलाएं थीं जो बराबर तीर-धनुष और तलवार लिए उनके अगल-बगल रहती थीं। अतः हम अनुमान लगा सकते हैं कि उलगुलान में महिलाओं की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका थी। स्त्री अंगरक्षकों की यह परंपरा हम झारखंड आंदोलन के आधुनिक दौर में भी पाते हैं। क्योंकि जयपाल सिंह मुंडा की अंगरक्षक भी दो महिलाएं ही थीं। इस बात का उल्लेख 1939 की ‘आदिवासी’ पत्रिका और उस समय के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में हुआ है।

उलगुलान में शामिल होने के लिए महिलाएं स्वयं तो आती ही थीं यह भी चर्चा है कि परिवार के लोग भी आगे बढ़कर घर की औरतों को खुशी-खुशी चलकद भेजते थे। इनमें अविवाहित लड़कियां ही नहीं बल्कि विवाहित औरतें भी होती थीं। यानी पुरुष स्वयं अपनी शादीशुदा औरतों को उलगुलान के लिए समर्पित करने में थोड़ा-सा भी नहीं हिचकिचाते थे। ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ में स्पष्ट उल्लेख है कि उलगुलान के लिए लोग न केवल खेती-बाड़ी छोड़ते जा रहे थे और अपने मवेशी बेच रहे थे, बल्कि अपनी पत्नियों को भी अपने धरती आबा बिरसा के सुपुर्द कर रहे थे। उन्हें इस बात की बिल्कुल चिंता नहीं थी कि औरतों के चले जाने के बाद उनका घर-बार कौन संभालेगा। न ही वे यह सोचते थे कि महिलाओं का कर्तव्य सिर्फ ‘घर’ तक सीमित है। क्योंकि आदिवासी समुदायों को परिवार-समाज की निजता से ज्यादा स्वतंत्रता पसंद है। उनकी बहुत साफ समझ थी कि स्त्रियों की संपूर्ण सम-सहभागिता के बगैर न तो स्वतंत्रता का आनंद लिया जा सकता है और न ही उसे वापस हासिल किया जा सकता है।

6 जनवरी 1900 को जब रांची के डिप्टी कमिश्नर बिरसा को रिफ्तार करने और उलगुलान का दमन करने ऐटकेडीह पहुंचे तो उनकी पहली भिड़ंत औरतों के साथ ही हुई। उलगुलान के प्रायः सभी इतिहासकारों ने प्रमुखता से इस घटना का वर्णन किया है। इस वर्णन के अनुसार 11 बजे दिन को पुलिस पार्टी गया मुंडा के घर ऐटकेडीह गांव पहुंची थी। डिप्टी कमिश्नर ने घर के सभी लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए आवाज लगायी। बहुत देर बाद भी घर के भीतर से कोई बाहर नहीं आया। तब एक कांस्टेबल को घर में भेजा गया। वह तुरंत ही ‘बचाओ-बचाओ’ चिल्लाता बाहर निकल आया। फिर भीतर से गया मुंडा की आवाज आयी – यह घर उसका है और डिप्टी कमिश्नर को उसके भीतर घुसने का कोई अधिकार नहीं है। इस पर डिप्टी कमिश्नर ने गोली चलायी और माचिस दिखाकर आग लगाने की भी धमकी दी। तब भी आत्मसमर्पण करने कोई भी बाहर नहीं निकला। अंत में डिप्टी कमिश्नर ने घर को आग लगा दी। गया मुंडा को मजबूरन अपने परिवार के साथ बाहर आना पड़ा। डिप्टी कमिश्नर ने गया मुंडा और उसके घर की औरतों के साथ हुए संघर्ष का जीवंत वर्णन किया है। उसके वर्णन के अनुसार – ‘गया मुंडा नंगी तलवार लिए हुए था। उसकी औरत माकी के हाथ में लंबी लाठी थी। छोटा लड़का कुल्हाड़ी लिए हुए था। 14 साल का पोता रामू धनुष और दो तीर लिए हुए था। दो पुत्र-वधुओं में से एक दौली और दूसरी टांगी के साथ थी। तीन पुत्रियों थीगी, नागी और लेम्बू के हाथों में क्रमशः लाठी, तलवार और टांगी थी। … उसकी पत्नी मुझे लाठी से मार रही थी। वह बहुत भयानक औरत थी, बिल्कुल डायन जैसी। इसी बूढ़ी खतरनाक औरत ने पुलिस-दारोगा को कुल्हाड़ी फेंककर मारी थीं। … यहां यह भी बता देना जरूरी है कि लड़नेवाली औरतों में से कम से कम दो अपने बाएं हाथ में अपने छोअे बच्चे लिए हुए थीं और दाहिने से कुल्हाड़ी भांज रही थीं।’ इसीलिए डॉ. सिंह टिप्पणी करते हैं, ‘गया मुंडा ने जिस हिम्मत और अदम्य निर्भीकता से संघर्ष किया, वह अपने में एक रहस्योद्घाटक और आश्चर्यजनक-सी घटना थी। और इस घटना में उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण औरतों की भूमिका थी, जिसने आंदोलन के नए मोड़ का संकेत दिया।’

9 जनवरी को सईल रकब पहाड़ी को फोरबेस, रोसे और स्ट्रीटफील्ड के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने घेर लिया। उलगुलान के लड़ाके औरतों के साथ डटे रहे। सेना ने गोलियां बरसाईं और उलगुलानियों ने इसका जवाब तीर, गुलेल और पत्थरों से दिया। जल्दी ही यह युद्ध हत्याकांड में बदल गया जब बंदूकों से बचने के लिए बिरसाइत पीछे हटे। ब्रिटिश सैनिकों ने पीछे हटते हुए स्त्री-पुरुषों को अपना निशाना बनाया। सरकारी अभिलेखों के अनुसार इसमें तीन औरतें मारी गईं। कैप्टन रोसे ने लिखा है – ‘दरअसल विद्रोहियों में औरतों और मर्दों के बीच फर्क कर सकना ही मुश्किल था।’ गोलीबारी के बाद हुई तलाशी में दो मर्द, एक युवक, बीस औरतें, आठ बच्चे गुफाओं में छिपे मिले। मारी गई तीन औरतों के साथ एक गंभीर रूप से घायल बच्चा भी मिला था। किंवदंतियों के अनुसार जो अपनी मृत मां के स्तन से दूध पी रहा था। इस बर्बर गोलीकांड की हर तरफ आलोचना हुई लेकिन ब्रिटिश सरकार के लेफ्टीनेंट गवर्नर ने इस हत्याकांड और महिलाओं की दुखद मृत्यु के लिए सेना को सभी प्रकार के आरोपों से मुक्त कर दिया। पादरी आयर चैटरटन ने ‘सटोरी ऑफ फिफ्टली इयर्स ऑफ मिशन वर्क्स इन छोटा नागपुर’ में बताया है कि जनवरी 1900 में सईल रकब पर हुए गोलीकांड के बाद बिरसा के ‘करीब 100 अनुयायियों को, जिनमें ज्यादातर महिलाएं थीं, रांची के 20 मील दक्षिण लागेर में पकड़ लिया गया’ था।

तत्कालीन दस्तावेजों के अनुसार इस बर्बर गोलीकांड और व्यापक स्तर पर चले धर-पकड़ अभियान के बाद कुछ समय तक चुप्पी रही। इससे ब्रिटिश अधिकारियों ने मान लिया कि आंदोलनकारी डर गए। पर फादर हौफमैन ने सरकार को आगाह करते हुए अपनी रिपोर्ट में कहा – ‘इस भ्रम में रहना बहुत बड़ी गलती होगी कि इस घटना से बिरसा के आदमियों के दृढ़ संकल्प में कुछ भी कमी आई है।’ डॉ. सिंह भी मानते हैं कि बिरसा के आदमी और उनकी पत्नियां अजीब किस्म के जिद्दी और दृढ़ संकल्प वाले लोग थे और लड़ाई जारी ही रखे हुए थे। उनके अनुसार अभी भी ‘फरार विद्रोहियों के घरों की महिलाएं अपने-अपने गांवों की शांतिप्रिय महिलाओं को डरा-धमका रही थीं।’ सुप्रसिद्ध मानवशास्त्री शरत चंद्र राय ने भी 1912 की ‘मुंडाज एंड देय कंट्री’ में लिखा है कि अन्या आदिवासी समुदायों की बनिस्पत हो-मुंडा लोग बहुत जिद्दी, अड़ियल और लड़ाकू प्रवृति के होते हैं।

ब्रिटिश विरोधी भारतीय संग्राम में बिरसा उलगुलान एक अविस्मरणीय अध्याय है। इसलिए भी कि इसमें महिलाओं की भूमिका बहुत बढ़-चढ़कर थी। हालांकि उलगुलान के बाद रांची क्षेत्र से 460 और सिंङभूम क्षेत्र से 121 कुल 581 लोगों को बंदी बनाया गया था। इनमें से 476 पर मुकदमा चला। 296 को निर्दोष मानकर अथवा माफी देकर और 68 को शांति बनाये रखने की शर्त पर बांड भरवाकर रिहा किया गया। रांची के 93 और सिंङभूम के 5 लोगों को फांसी, देशनिकाला, आजीवन और एक दिन तक की कठोर सजाएं दी गई। इनमें से कितने स्त्री थे, कितने पुरुष इसका पता नहीं चलता। ब्रिटिश दस्तावेजों में जो नाम दर्ज हैं वे इतने भ्रामक हैं कि उससे कैदी स्त्री और पुरुष के भेद को जान पाना बहुत मुश्किल है। फिर भी गया मुडा की पत्नी माकी, उसकी बेटियों और पुत्रवधुओं को सजा हुई इसके दस्तावेजी प्रमाण हैं। यही नहीं उलगुलान के समय हुई गिरफ्तारी की एक तस्वीर (देखें दिया गया चित्र) में सात स्त्रियों के होने का स्पष्ट पता चलता है। नवगठित झारखंड की सरकार और समाज हम सब पर यह दायित्व है कि झारखंड आंदोलन में शामिल महिलाओं को इतिहास में स्थान देने के लिए हरसंभव प्रयत्न करें। महिला सशक्तिकरण की दिशा में यह एक जरूरी कदम है।

Read in English

Please Share and Support

Tags: आदिवासी इतिहास आदिवासी महिला उलगुलान औपनिवेशिक संघर्ष झारखंड बिरसा मुंडा ब्रिटिश शासन वंदना टेटे

Continue Reading

Previous: ख्रिस्तसन मुंडा: आजादी का एक गुमनाम आदिवासी लड़ाका
Next: विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप और योगदान के सौ साल (1921-2021)

Related Stories

भारत का पहला आदिवासी जनप्रतिनिधि दुलु मानकी
1 min read
  • इतिहास
  • राजनीति

भारत का पहला आदिवासी जनप्रतिनिधि दुलु मानकी

December 28, 2021
जब राष्ट्रपति वीवी गिरी एक आदिवासी से हार गए
1 min read
  • इतिहास
  • राजनीति

जब राष्ट्रपति वीवी गिरी एक आदिवासी से हार गए

December 28, 2021
भूमि के मालिकाना हक पर हुआ आजाद भारत का पहला आदिवासी जनसंहारः चंदवा-रूपसपुर
1 min read
  • इतिहास

भूमि के मालिकाना हक पर हुआ आजाद भारत का पहला आदिवासी जनसंहारः चंदवा-रूपसपुर

December 9, 2021
जोहार. आदिवासी फर्स्ट नेशन भारत के आदिवासी और देशज समुदायों के समाचार-विचार का खुला व निर्भीक मंच है। इसको चलाने में आप सभी से रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा है।

Johar. Adivasi First Nation is an open and fearless platform for news and views of the Adivasis and indigenous communities of India. We look forward to creative support from all of you in running this digital platform.
Donate ₹ 25 to 100 only

www.adivasidom.in/all-courses/
उत्कृष्ट, पठनीय, संग्रहणीय और विचारोत्तेजक आदिवासी और देशज किताबों को खरीद कर आदिवासियत के वैचारिक आंदोलन को सहयोग दें.
www.jharkhandiakhra.in

You may have missed

Poems of Sushma Asur
5 min read
  • Literature

Poems of Sushma Asur

December 28, 2021
India’s First Elected Adivasi MLC from a General Seat in 1921
4 min read
  • History
  • Politics

India’s First Elected Adivasi MLC from a General Seat in 1921

December 28, 2021
भारत का पहला आदिवासी जनप्रतिनिधि दुलु मानकी
1 min read
  • इतिहास
  • राजनीति

भारत का पहला आदिवासी जनप्रतिनिधि दुलु मानकी

December 28, 2021
Adivasis of Tea Gardens in Indian Cinema
5 min read
  • Film

Adivasis of Tea Gardens in Indian Cinema

December 28, 2021
  • Home
  • News
  • History
  • Literature
  • Culture
  • Cinema
  • Sports
  • Adivasidom
  • Twitter
  • Facebook
  • Instagram
  • Youtube
Copyright © All rights reserved. | PKF ( Jharkhand).